गीता की यात्रा



भाग - 06

गीता अध्याय - 03 का प्रारम्भ अर्जुन के इस प्रश्न से है .......
यदि ज्ञान कर्म से उत्तम है फिर आप मुझे कर्म में क्यों उतारना चाह रहे हैं ?
और ----
अध्याय - 05 का प्रारम्भिक सूत्र जो अर्जुन के प्रश्न के रूप में है , कहता है .........
कभी आप कर्म संन्यास की बात करते हैं तो कभीं कर्म - योग की ,
आप मुझे वह बताएं जो मेरे लिए उत्तम हो ?

अब हम इन दो प्रश्नों को जोड़ कर देखते हैं .......
कर्म , कर्म योग , कर्म संन्यास और ज्ञान - यह हैं गीता की चार सीढियां ;
कर्म में हम सब हैं लेकीन बेहोशी में हम कर्म में हैं ॥
कर्म की होश है - भोग तत्वों की समझ जिनको ....
गुण तत्त्व भी कहते हैं ।
जब कर्म - तत्वों की होश बन जाती है तब ....
वह कर्म , कर्म - योग बन जाता है , और ....
कर्म ज्योंही योग बनाता है ......
भोग तत्वों के बंधन गिर जाते हैं और इन बंधनों का गिरना ही .....
आसक्ति रहित कर्म की राह पर ला देता है
जो ....
और कुछ नहीं है , केवल कर्म संन्यास है ,
और ....
कर्म जब संन्यास - मन - बुद्धि स्थिति में होनें लगते हैं ,
तब .....
ज्ञान की प्राप्ति होती है जो .....
निर्वाण का द्वार ही है और कुछ नहीं ॥

गीता अध्याय - 03 और गीता अध्याय - 05 की बातें जिसके
मन में बस गयी .....
वह हो गया .....
गीता - योगी , ऐसा योगी जो .....
स्थिर प्रज्ञा प्राप्त होता है -----
गुनातीत होता है ----
जो कर्म में अकर्म और ....
अकर्म में कर्म देखता है ----
और जिसके मन में प्रभु के अलावा और .....
कुछ नहीं होता ॥

==== ॐ =====

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