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Showing posts from January, 2010

गीता अमृत - 9

कर्म रहित होना क्या है ? वासना से प्यार में पहुँचना कर्म - योग है और ---- प्यार से वासना में गिर जाना , नरक है ----और अब गीता ...... चिंता रहित हो कर कर्म करना , कर्म रहित होना है , यह है गीता - अमृत की एक बूँद [क] गीता सूत्र - 3.4 - 3.5, 18.11, 18.49 - 18.50, कहते हैं ----- कर्म को न करके कर्म - निष्कर्मता नहीं मिलती जो ज्ञान - योग की परा - निष्ठा है । [ख] गीता सूत्र - 3.5, 2.45, 3.27, 3.33 करता - भाव अहंकार की छाया है , गुण कर्म - करता हैं और ऐसे कर्म , भोग होते हैं । [ग] गीता सूत्र - 2.14, 5.22, 18.38, 18.48 भोग कर्मों में क्षणिक जो सुख मिलता है उसमें दुःख का बीज होता है । सभी कर्म दोष युक्त होते हैं लेकीन सहज कर्मों को करना चाहिए । [घ] गीता सूत्र - 2.42 - 2.44 तक वेदों में भोग - कर्मों की प्रसंशा की गयी है और भोग - कर्मों की प्राप्ति के उपाय भी दिए गए हैं । [च] गीता सूत्र - 2.46 गीता - योगी का सम्बन्ध वेदों से नाम मात्र का होता है । [छ] गीता सूत्र - 4.16 - 4.23 तक समभाव योगी कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखनें वाला होता है और वह पाप रहित सभी कर्मों को करनें में सक्षम होता

गीता अमृत - 8

साँख्य- योगी एवं अन्य योगी ....गीता श्लोक - 3.3 श्लोक कहता है ----- साँख्य - योगी ज्ञान के माध्यम से जो पाता है अन्य योगी कर्म - योग से वही पाते हैं । गरुड़ पुराण कहता है .... शात्रों से मिलनें वाला ज्ञान परमात्मा से जोड़ता है लेकीन विवेक से अर्जित ज्ञान स्वयं परम ब्रह्म है । बीश्वी शताब्दी के महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टाइन कहते हैं ...... किताबों से मिलनें वाला ज्ञान मुर्दा ज्ञान है और मनुष्य की चेतना से जो ज्ञान उपजता है वह जीवित ज्ञान है । गीता कहता है [गीता सूत्र - 13.2 ] ------ क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ही परम ज्ञान है । गरुड़ पुराण कहता है ------ कोई द्वैत्य बादी है तो कोई अद्वैत्य में आस्था रखता है , इस से क्या होगा , वह - परम तो समभाव में दीखता है । मार्ग कोई भी हो जबतक वह बंद नहीं होता , माध्यम होता है लेकीन रुका मार्ग बंधन होता है, साधना के मार्ग अनेक हो सकते हैं लेकीन सब से जो मिलता है वह है - सम भाव और सम भाव से निराकार की यात्रा प्रारम्भ होती है जो अंत हींन यात्रा है । साधना का आखिरी पड़ाव है बैराग्य जहां साँख्य योगी , ज्ञान के माध्यम से बुद्धि के सहारे पहुँचते हैं औ

गीता अमृत - 7

चलो अब चलते हैं ----- बिषय से मन तक की यात्रा पर ....... गीता श्लोक ----- 2.60 - 2.64, 3.6 - 3.7, 3.34, 3.37 - 3.38, 3.40, 14.10, 3.5, 2.45, 3.27, 3.33 ये गीता के सूत्र क्या कहते हैं ? ...... बिषयों के राग - द्वेष मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों को आकर्षित करते हैं , यह आकर्षण उस मनुष्य के अन्दर के गुण - समीकरण [ गीता - 14.10 ] पर निर्भर होता है । काम , क्रोध लोभ , कामना , राजस गुण की पहचान हैं और मोह , भय एवं आलस्य तामस गुण को ब्यक्त करते हैं [गीता सूत्र - 14.6, 14.9, 14.10, 14.12, 14.8, 14.17, 18.72 - 18.73 ] और वह ब्यक्ति बिषयों में प्रभु को देखता है जो सत गुण के प्रभाव में होता है । जब ज्ञानेन्द्रियाँ बिषयों में पहुँचती हैं तब मन में उस बिषय के प्रति मनन प्रारम्भ हो जाता है , मनन से आसक्ति , आसक्ति से कामना बनती है एवं जब कामना टूटती है तब क्रोध पैदा होता है [गीता - 2।62 - 2।63 ] । इंदियों को हठात नहीं नियोजित करना चाहिए , ऐसा करनें से अहंकार और सघन हो जाता है , इन्द्रियों को मन से नियोजित करना उत्तम फल को देता है [ गीता - 3।6, 3।7 ] । बिषय की समझ --- ज्ञानेन्द्रियों की समझ ---

गीता अमृत - 6

स्थिर प्रज्ञ कौन है ? गीता - 2.54 गीता में अर्जुन का पहला प्रश्न है ----स्थिर प्रज्ञ की पहचान क्या है ? इस सम्बन्ध में अब गीता की कुछ बातें देखते हैं ------- [क] गीता सूत्र 2.55 - 2.71 तक निर्विकार मन - बुद्धि वाला , समभाव वाला , परमात्मा के परम प्यार में डूबा ब्यक्ति ---- [ख] गीता सूत्र 14.22 - 14.26 तक गुणों को करता समझनें वाला ---- [ग] गीता सूत्र 12.13 - 12.20, 2.11, 18.42 समभाव वाला ---- [घ] गीता सूत्र 3.17, 5.24, 6.29 - 6.30, 18.55 - 18.56 आत्मा केन्द्रित ब्यक्ति ---- स्थिर - प्रज्ञ होता है । स्थिर प्रज्ञ , संन्यासी , बैरागी , योगी , गुनातीत , परा भक्त --ये सबहीं शब्द उनके लिए हैं जो --- परम प्रीती में डूबा रहता है । =====ॐ=====

गीता अमृत - 5

इन्द्रियों का बसेरा कहाँ है ? [क] प्रकृत - पुरुष का सम्बन्ध [ख] भोग - योग का सम्बन्ध [ग] संसार - मनुष्य का सम्बन्ध ......यह सब एक हैं ---कैसे देखिये , यहाँ गीता श्लोक - 3.34, 18.38, 5.22, 2.14 कहते हैं ----- गीता श्लोक - 3.34 बिषयों में छिपे राग - द्वेष इन्द्रियों को आकर्षित करते हैं । गीता श्लोक - 18.38 इन्द्रिय सुख राजस सुख है जो भोग के समय अमृत सा लगता है लेकीन इस सुख में बिष होता है । गीता श्लोक - 5.22 इन्द्रिय एवं बिषयों के योग से जो होता है वह भोग है जिसके सुख में दुःख छिपा होता है । गीता श्लोक - 2.14 इन्द्रिय सुख क्षणिक होते हैं । इन्द्रियाँ मनुष्य को प्रकृति से जोडती हैं , यहाँ तक बात उत्तम बात है लेकीन गुणों से प्रभावित इन्द्रिया बिषयों में राग - द्वेष देख कर इस जोड़ को भोग बना देती हैं । जो गुणों के माध्यम से इन्द्रियों की गति को समझता है , वह योगी होता है और जो नहीं समझता वह भोगी होता है । संसार का ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से ही संभव है और यह ज्ञान प्रकृति - पुरुष को स्पष्ट करता है । संसार में भोग न होते , इन्द्रियाँ बिषयों से आकर्षित न होती तो कैसे पता चलता की भोग क

गीता अमृत - 4

नायं हन्ति न हन्यते ------गीता ..2.19 न हन्यते हन्यमाने शरीरे ---गीता .. 2.20 आत्मा क्या है ? हम पढ़ते थे --ठोस , द्रव एवं गैस -- तीन रूपों में ब्रह्माण्ड की सूचनाओं को बाटा जा सकता है लेकीन अब विज्ञानं के पास प्लास्मा भी एक स्थिति है जिसमें सूचनाएं हैं । आत्मा क्या है - यह कल एक रहस्य था , आज एक रहस्य है और आनें वाले कल में भी एक रहस्य रहेगा और जिस दिन विज्ञानं को आत्मा रहस्य का पता चलेगा उस दिन विज्ञान आत्मा के लिए भी कोई लैटिन या ग्रीक शब्द खोज लेगा । ऊपर गीता के दो श्लोकों का आंशिक रूप दिया गया है जो आत्मा के लिए है । यह दोनों श्लोक कहते हैं ---- आत्मा वह है जिसके पास मारना एवं मरना शब्द नहीं है ...अब आप सोंचे - क्या विज्ञानं के पास ऐसी कोई सूचना है ? उत्तर है - नहीं । गीता में आत्मा को बुद्धि के स्तर पर समझनें के लिए आप निम्न श्लोकों को देखें ----- 2.18- 2.30, 10.20, 13.22, 13.32, 13.33, 14.5, 15.7, 15.8, 15.11 ये श्लोक कहते हैं-- वह जो टाइम स्पेस के अन्दर है , टाइम स्पेस के बाहर है , जिससे टाइम स्पेस है , जो सनातन है । जो अविभाज्य है , जो अपरिवर्तनीय है , जो स्थीर है । जो

गीता अमृत - 3

भोग - भाव का होना , प्रभु मार्ग में एक मजबूत अवरोध है ----गीता ..6.27 गीता की इस बात को समझनें के लिए पहले आप इन श्लोकों को देखें ----- 14.7, 14.10, 14.12, 3.37 ---3.43, 5.23, फिर इन श्लोकों को देखिये --- 5.26, 16.21, 2.55, 2.62 - 2.63, 4.10, 4.19 - 4.20, 6.2, 6.4, 6.24, 6.27, 7.20,7.27,7.11, 10.28 और तब आप समझेंगे इनको ------ राजस गुण के तत्त्व क्या हैं ? आसक्ति, राग -रूप , कामना , संकल्प - विकल्प , लोभ , काम, क्रोध - राजस गुण के तत्त्व हैं -काम से क्रोध उठता है जो पाप की उर्जा है । काम, क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं और इनसे अप्रभावित ब्यक्ति योगी होता है । परम श्री कृष्ण कहते हैं --- निर्विकार काम ऊर्जा , मैं हूँ [ गीता 7.11] और कामदेव भी मैं हूँ [ गीता - 10.28] , अब आप समझ सकते हैं की गीता श्लोक - 6.27 क्यों कहता है ------- राजस गुण प्रभु के मार्ग में एक मजबूत रूकावट है । राजस गुण के प्रभाव में मनुष्य भोग से जुड़ता है , भोग- भगवान् को एक समय एक साथ एक बुद्धि में रखना असंभव है [ गीता - 2.42 - 2.44 तक ] । काम + बासना = नरक , और काम - बासना = प्रभु का परम धाम सीधा सा समीकरण आप अप

गीता अमृत - 2

गीता का आदि - अंत मोह से सम्बंधित है ---कैसे ? गीता में परम श्री कृष्ण का पहला श्लोक 2.2 है जिसमें परम श्री कृष्ण अर्जुन से पूछ रहे हैं ...इस असमय में तेरे को मोह कैसे हो गया है ? और परम का आखिरी श्लोक है 18.72 जिसमें परम कहते हैं ....क्या तेरा अज्ञान जनित मोह समाप्त हो गया है ? कुछ गीता से मैं आप को दे रहा हूँ और कुछ गीता में आप खोजें और जब दोनों मिलेंगे तो जो तैयार होगा वह परम सत्य होगा ---ऐसी मेरी सोच है । गीता में श्री कृष्ण अर्जुन की बातों को चुपचाप सुनते हैं [ गीता - 1.22 - 1.47 तक ] और अर्जुन जो कुछ भी यहाँ बोलते हैं उससे यह स्पष्ट होता है की ये मोह में हैं । अर्जुन कहते हैं ....मेरा शरीर शिथिल हो रहा है , मन- बुद्धि भ्रमित हो रहे हैं , त्वचा में जलन हो रही है और गला सूख रहा है ---यह सब मोह की निशानी हैं । अब आगे ---- मोह ,भय एवं आलस्य , तामस गुण के तत्व हैं , राजस - तामस गुण अज्ञान की जननी हैं और मोह- अहंकार अज्ञान के कारण बुद्धि में भ्रम पैदा करते हैं ....देखिये गीता - श्लोक ...18.59 - 18.60, 18.72 - 18.73, 2.71, 4.10, 4.23, 7.27, 14.8, 14.17, गीता यह कहता है [ गीता- 2

गीता अमृत - 1

कर्म - योग से परम - धाम कर्म - योग में आसक्ति रहित कर्म से परम - धाम कैसे मिलता है ? इस रहस्य के लिए पहले इन श्लोकों में डुबकी लगाइए ....... [क] गीता सूत्र - 2.47 - 2.51, 3.19 - 3.20, 18.6, 18.9, 18.11, 18.49 - 18.50, 6.1 जब आप इस डुबकी का रस - पान कर लेंगे तब इन सूत्रों में अपनें मन - बुद्धि को लगाइए ........ [ख] गीता सूत्र - 3.34, 2.67 - 2.68, 2.62 - 2.63, 3.37, और तब देखें इन सूत्रों को .......... [ग] गीता सूत्र - 3.34, 2.67 - 2.68, 2.62 - 2.63, 3.37, 4.18, जब आप इन सूत्रों में अपनें को मिला देंगे तब आप को यह मिलेगा -------- आसक्ति रहित कर्म से राजा जनक की तरह सिद्धि मिलती है । कर्म में अकर्म देखने वाला एवं अकर्म में कर्म देखनें वाला योगी नैष्कर्म की सिद्धि में होता है । यह सिद्धि ज्ञान योग की परा निष्ठा है जिसमें योगी हर पल प्रभु मय होता है । प्रभु मय योगी , दुर्लभ होते हैं । आप ऊपर दिए गए श्लोकों को अपनाइए और तब आप गीता के कर्म - योग के रहस्य में पहुँच सकते हैं । ====ॐ=======

ऊब का श्रोत क्या है ?

प्रोफ़ेसर एल्बर्ट आइन्स्टाइन कहते हैं ---- The deep immotional conviction of the presence of a superior reasoning power, which is revealed in the incomprehensive universe, forms my idea of God . [क] श्री राम - कथा को लोग त्रेता - युग से सुन रहे हैं , लेकीन क्या सुनानें एवं सुननें वालों में ऊब दिखती है ? [ख] परम श्री कृष्ण की कथा लोग द्वापर से सुना रहे हैं लेकीन क्या सुनानें वाले एवं सुननें वालों में ऊब दिखती है ? [ग] कारोबार , परिवार , धन - दौलत सब कुछ फ़ैल रहा है तो क्या ऐसे लोगों में ऊब दिखती है ? आप इन कुछ प्रश्नों के माध्यम से ऊब को समझनें की कोशिश करें । दुखी ब्यक्ति के गीत से भी आंशू टपकते हैं और सुखी ब्यक्ति के दुःख के गीत में भी दुःख की झलक नहीं मिलती । यहाँ सुख - दुःख गुण आधारित सुख - दुःख नहीं हैं जो आते - जाते रहते हैं । ऊब आलस्य की परछाई है और आलस्य तामस गुण का तत्त्व है । जब तक गुणों का प्रभाव रहता है आलस्य का आना - जाना लगा रहता है और जब कोई परम - ऊर्जा से परिपूर्ण हो जाता है , गुनातीत हो जाता है तब उसमें ऊब के लिए कोई मार्ग नही होता । ऐसा ब्यक्ति जिसके देह के नव द्वार [ ग

रस्सी तो जल गई , गांठे अभी बाकी हैं

आपनें यह मुहावरा तो सुना ही होगा लेकीन कभी इस पर सोचा भी है ? , यदि नहीं तो अब सोचते हैं । एक रस्सी लें और कुछ ढीली और कुछ मजबूत गांठे उस पर लगा दे । कुछ देर बाद उन गांठों को खोलें । जो गांठें ढीली रही होंगी उनकी जगह सीधी होगी और जहां मजबूत गांठें रही होंगी वह जगह कभी सीधी नहीं होंगी , गांठें खोलनें में भी कठिनाई आती है । ढीली और मजबूत गांठों वाली रस्सी को अब जला दें और जलती रस्सी को देखते रहें । धीरे - धीरे रस्सी जल जाती है , गांठें भी जल जाती हैं , ढीली गांठों का तो कोई पता नहीं होता लेकीन मजबूत गांठे वैसे की वैसी बनी रहती हैं । जली हुई मजबूत गांठें राख बन गयी होती हैं लेकीन उनका आकार - प्रकार पूर्ववत बना रहता है । गुणों की गांठें ढीली करनें का काम योग करता है और जब सभी गांठें ढीली हो कर खुल जाती हैं तब वह ब्यक्ति बैरागी हो जाता है । महाबीर इस बात को निर्ग्रन्थ होना कहते थे और गीता इस को योगी / सन्यासी / वैरागी कहता है । अब आप गीता के इन श्लोकों को देखें -----6.41 -6.42 , 9.20 - 9.22 को, जो कहते हैं ........ साधना में बैरागी बन कर भी लोग भोग में गिर जाते हैं और ऐसे लोग यातो कुछ दिन

भूत - प्रेत

भूत - प्रेत से डरो नहीं , भूत - प्रेत बननें से बचो भूत - प्रेत योनी को प्रभुनें नहीं बनाया , यह योनी मनुष्य की अपनीं उपज है । मनुष्य जो काम शरीर रहते नहीं कर पाता उस काम को भूत - प्रेत बन कर पूरा करना चाहता है या नया जन्म ले कर उस काम को करता है । सघन अतृप्त कामनाएं मनुष्य को यातो नए जन्म में पहुंचाती हैं या भूत - प्रेत योनी में ले जाती हैं [गीता - 8।6 , 15।8 ]। कामना - अहंकार की सघनता , भूत - प्रेत योनी के मार्ग हैं । भूत - प्रेत को किसनें जाना ? सर ओलिवर जोसेफ लाज जो एक वैज्ञानिक थे , जिन्होनें इथर की कल्पना करके ब्रह्माण्ड को खोजने का एक मार्ग बनाया था , कहते हैं ----वैज्ञानिक नियम तो बदलते रहते हैं जिनको सत्य कहना कुछ कठीन है लेकीन भूत - प्रेत का होना परम सत्य है । L.Rom Hubbard, Edgar Cayce , Sigmund Freud ये सभी लोग भूत - प्रेत में पूरी आस्था रखते थे । निजाम हैदराबाद को भूत - प्रेतों से इतना भय था की वे रात को सोते समय अपना एक पैर नमक के लोटे में रखते थे । भूत - प्रेतों को कौन देखता है ? भूत - प्रेतों को या तो सिद्ध योगी देखते हैं या वह देखता है जो पुरी तरह भय में हो , ऐसा क

नाच्यो बहुत गोपाल

पकड़ जब छूटती है ----- तब ये शब्द निकलते हैं ...... [क] मीरा कहती हैं ----अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल [ख] जेसस कहते हैं ---एली एली लामा सुवत्तनी [ग] नानक कहते हैं ---नानक दुखिया सब संसार [घ] परमहंस राम कृष्ण भी कभी- अभी माँ से नाराजगी जताते थे जेसस जब क्रास पर लटक रहे थे तब हेब्रू भाषा में बोला --हे प्रभु ! आप मुझे क्यों भूल गए ? मीरा नाच - नाच कर जब थक गयी और वह जो चाहती थी वह नहीं मिला तब उनको भी बोलना पड़ा ---अब मैं नाच्यों बहुत गोपाल । नानक संसार भ्रमण में संसार को कमल के फूल की तरह मुस्कुराता देखना चाहते होंगे और जब ऐसा नहीं देख पाए तो बोल पड़े ---नानक दुखिया सब संसार । परम हंस जी मा से वार्तालाप करते थे और जब माँ चुप रहती थी तब मंदिर को बंद करके गायब हो जाते थे ---कई - कई दिन मंदिर बंद रहता था । परमहंस जी माँ से कुछ चाहते रहे होंगे और जब उनको वह नहीं मिलता था तब वे ऐसा करते थे । रस्सी के सहारे कुएं से बाल्टी के माध्यम से पानी निकालते हैं और जब पानी की झलक मिल जाती है तब रस्सी को छोड़ दिया जाता है और अंततः बाल्टी को भी त्यागना पड़ता है । गुण-तत्त्व रस्सी की तरह हैं और बाल्टी है यह

जोड़

जोड़ क्या है ? [क] ईंट के ऊपर ईंट रख कर बनाई गई दिवार कब तक खड़ी रहेगी ? [ख] प्यार - प्यार का सम्बन्ध कब तक रहेगा ? [ग] बासना - बासना का सम्बन्ध कब तक रहेगा ? [घ] बासना और प्यार का सम्बन्ध कब तक का होता है ? आप इस प्रश्नों में अपनें को खोजे । दो को जोडनें वाला कोई तीसरा होता है जिसको समझना कुछ कठिन तो है लेकीन असंभव नहीं है । कौन सा जोड़ खुलता है ? [क] वासना - वासना का जोड़ खुलता है । इस बात को समझनें की जरुरत है --- कहते हैं ....आत्मा शरीर को छोड़ता है लेकीन ऐसी बात नहीं है , देह आत्मा को धारण करनें में असमर्थता दिखाता है और जब देह जबाब देता है तब आत्मा से देह अलग हो जाता है । आत्मा कहाँ जाएगा ? यह तो परमात्मा है जो सनातन है , जो सर्वत्र है फिर यह कहाँ जाएगा ? आत्मा को देह में तीन गुण रोक कर रखते हैं [ गीता - 14.5 ] और जब यह जोड़ टूटता है तब देह आत्मा से अलग हो जाता है । देह और आत्मा का जोड़ जो हम हैं वह सविकार एवं निर्विकार का योग है जिसमें जोड़ का माध्यम तीन गुण हैं जो विकारों की जननी हैं तथा जो परमात्मा से हैं । प्यार - प्यार का जोड़ कभी नहीं खुलता । प्यार- प्यार का जोड़ सनात

कस्तूरी कुंडल बसे .......

एक खोजी , एक कटी पतंग की तरह भावों की सूक्ष्म डोर को पकड़ कर भावातीत के माध्यम से अनंत में झाकनें की कोशिश करता हुआ कह रहा है ------- कस्तूरी कुंडल बसे , मृग ढूढत बन माहि , ऐसे घट - घट राम है , दुनिया जाने नाहि कस्तूरी मृग के कुंडल में कस्तूरी है , जिसकी गंध उसे विवश कर रही है की वह उस गंध के श्रोत को खोजे और मृग की यह तलाश उसे जंगल - जंगल भगा रही है । धन्य है वह मृग , जिसको गंध का तो पता है जिसके आधार पर वह कस्तूरी की तलाश कर रहा है , हमारे पास क्या है ? सत्रहवीं इश्बी के मध्य में एक ब्यापारी घुमते - घुमते बिहार पहुंचा , बिहार के एक गाँव में एक मिटटी की कब्र में उसको परम नूर की झलक मिली और उस नूर की खोज में उसका अंत हो गया जिसकी कब्र दिल्ली के जामा मस्जिद के सामनें आज भी देखी जा सकती है । वह ब्यापारी था , औलिया सरमद जो एक यहूदी था । मृग के पास कस्तूरी की गंध है ... सरमद के साथ परम नूर की एक झलक थी और ..... हमारे पास क्या है ? गर्भ से जन्म तक .... जन्म से मृत्यु तक ... पुनः मृत्यु से गर्भ तक की हमारी तलाश क्या है ? [क] कौन तलाश करता है ? [ख] किसकी तलाश कर रहा है ? [ग] क्यों तलाश

मृत्यु का भय .......

मृत्यु से कम लोग , मृत्यु के भय से ज्यादा लोग मरते हैं जुनैद [857 - 922 AD ] जो मंसूर के गुरु थे , एक दिन एक पहाड़ी पर डूबते सूर्य को देख रहे थे । कुछ- कुछ अँधेरा हो रहा था , उनको एक काली छाया उधर से जाती हुयी नज़र आई । जुनैद उस काली छाया से पूछते हैं --- मौत ! तू इस समय कहाँ जा रही हो ? मौत बोली , जुन्नैद ! मैं कुछ आदमियों को लेनें सामनें वाले गाँव में जा रही हूँ । कुछ दिन गुजर गए , मौत पुनः उस रास्ते से वापस आ रही थी , जुन्नैद पूछते हैं ----तूं तो कुछ की बात कर रही थी , लेकीन वहाँ तो काफी लोग मरे , बात क्या है , क्या तुम मुझसे झूठ बोली थी ? मौत कहती है ------- मैं तो कुछ लोगों को मारा बाकी सब डर के कारण स्वतः मर गए , मैं क्या कर सकती थी ? मृत्यु एक परम सत्य है ........ मृतु से भाग कर जाना कहाँ है ? मृत्यु तो सब की होनी ही है , चाहे वह ----- लोक हों .... चाँद-सूर्य हों ... या हम हों । मृत्यु का विज्ञानं गीता सिखाता है , क्या आप सीखना चाहते हैं ? =====ॐ=======

मृत्यु से क्या भागना

In India I found a race of mortals living upon the Earth , but not adhering to it .....possessing everything but possessed by non. ----- Apollonius Tyanaeus , a greek traveller to India . 1 AD गीता - 8.6 मनुष्य जिस भाव से जीवन जीता है , अंत समय में वही भाव उसको पकड़ कर रखना चाहता है । कुछ और बातों को देखते हैं ------ [क] भोग ही जिनका जीवन - केंद्र है , वे मृत्यु से भागते हैं । [ख] मंदिरों को बनाया था सिद्ध - योगियों नें , योग साधना की अनुभूति को अपनें स्मृति में बनाए रखनें केलिए , लेकीन आज मंदिरों में भीड़ है उनकी, जो मृत्यु से भयभीत हैं । [ग] भोगी का आत्मा संघर्ष के बाद शरीर छोड़ता है और योगी स्वतः आत्मा को शरीर छोड़ते देखता है । गीता का श्लोक 8.6 को आपनें ऊपर अभी - अभी देखा है और आप यह भी जानते हैं की हर आखिरी श्वाश भरते हिन्दू को जो लगभग कोमा में होता है , उसको गीता सुनाया जाता है --अब आप सोचिये की उस का क्या होता होगा ? गीता मृत्यु से मैत्री स्थापित करवाता है और कहता है ----- मृत्यु एक परम सत्य है । इससे कब तक भागोगे , अच्छा होगा की तूं इसको समझ ले और इस से मैत्री स्थापित करले ।

तंत्र और योग --16

तंत्र में स्त्री - उर्जा को निर्विकार एवं साधना - श्रोत का दर्जा मिला हुआ है । स्त्री जबतक माँ नहीं बनती , अधूरी रहती है । पुरुष की उर्जा अन्दर से बाहर की ओर पलायन करना चाहती है और ..... स्त्री की उर्जा अन्दर - अन्दर एक गति से अपने चक्र में घुमती है । पुरुष अधूरापन को महशूश करता रहता है और ...... स्त्री पूर्ण होती है । स्त्री को प्रकृति की तरफ से प्रसाद रूप में , ध्यान मिला हुआ है और .... पुरुष को ध्यान में बैठनें का अभ्यास करना पड़ता है । स्त्री अपनें पुरुष में शिव को देखती है , माँ के रूप में अपनें बच्चे में निराकार परमात्मा को साकार रूप में देखती है लेकीन पुरुष एकदम भिन्न है । यदि स्त्री का साथ न होता तो पुरुष घर - मंदिर का निर्माण न करता , वह खाना बदोश का जीवन जीता । पुरुष हर पल नए की खोज में ब्यस्त रहता है और ..... स्त्री अपनें पुरानें को हर दिन नए के रूप में देख कर तृप्त रहती है । पुरुष प्रकाश की गति से भागना चाहता है और ..... स्त्री को कोई जल्दी नहीं । पुरुष समय के अधीन है और ..... स्त्री स्पेस में जीती है । स्त्री ह्रदय चक्र पर होती है और .... पुरुष काम [कामना] चक्र पर होता ह

तंत्र और योग --15

सहस्त्रार चक्र सहस्त्रार चक्र उस स्थान के चारों तरफ होता है जहां ब्राहमण लोग चोटी रखते हैं । इस चक्र की तुलना द्वारिका तीर्थ से करते हैं , अब आप देखें एक जीव वैज्ञानिक की बाते , जिनको नोबेल पुरष्कार मिल चुका है ----- John Eccles an austrailian nobel prize winner in neuro science in 1963 says --- Consciousness is an extra cerebral located within the human skull where orthodox hindus keep there crest . This is the area where fusion of consciousness takes place with the physical brain and this area is konwn as supplementary motor area . consciousness servives even after the death of the physical brain . इस जीव वैज्ञानिक की बातें ऐसी हैं जैसे यह वैज्ञानिक नहीं गीता-योगी है । सहस्त्रार को द्वारिका क्यों कहते हैं ? द्वारिका शब्द द्वार से बना है , वह द्वार जहां से एक तरफ भोग संसार दीखता है और दूसरी ओर परम का आयाम जो अरब सागर की लहरों में गूंजते ॐ के माध्यम से देखा जा सकता है । आज जो द्वारिका है वह वह सातवीं द्वारिका है , इसके पहले छः द्वारिका समुद्र में समा चुके हैं । कनाडा के प्रशिद्

तंत्र और योग ---14

अजाना या आज्ञा चक्र [ Third Eye Centre ] आज्ञा चक्र की तुलना काशीसे करते हैं जिसको शिव के त्रिशूल पर बसी हुयी नगरी भी कहते हैं । काशी विद्या का केंद्र था , है , और रहेगा - ऐसी सोच कोई भ्रान्ति नहीं है । आज्ञा चक्र वह खिड़की है जिस से परमधाम दीखता है जो स्वप्रकाषित है । आज्ञा चक्र के रहस्य को समझनें के लिए आप कुछ लोगों के जीवन को देखें तो अच्छा रहेगा । [क] श्रीनिवास रामानुजन ऐयांगार [1887 - 1920 ] मद्रास में एक पंडित घर में जन्में रामानुज मुश्किल से मैट्रिक तक पढ़ पाए थे लेकीन अंक विज्ञानं में विश्व में पहले स्थान पर थे । प्रोफ़ेसर हार्डी , रामानुजन को कम्ब्रिज विश्व विद्यालय में अपनें पास रखा, कारन यह था की रामानुजन एक असाधारण प्रतिभा वाले ब्यक्ति थे जिनकी प्रतिभा की तुलना में हार्डी की प्रतिभा दस प्रतिशत थी , यह बात मैं नहीं , स्वयं हार्डी कहते हैं । हार्डी- रामानुज नंबर है 1729 जिसको numerology में कौन नहीं जानता , यह नंबर हार्डी के कार का था जिसको हार्डी अच्छा नंबर नहीं मानते थे लेकीन यह बात हार्डी जब रामानुजन से की तो रामानुजन तुरंत बोले , यह नंबर तो अद्भुत नंबर है क्योंकि --

तंत्र और योग ----13

अवंतिका चक्र [ Throat Centre ] मूलाधार के बाद काम- नाभि चक्रों की पकड़ में अनेक तत्त्व हैं लेकीन ह्रदय से आगे की यात्रा में अहंकार एक प्रमुख तत्त्व है । अवंतिका चक्र को उज्जैन तीर्थ माना जाता है । उज्जैन भारत का एक प्राचीनतम धार्मिक तीर्थ है जहां से पौराणिक युग का प्रारम्भ माना जाना अतिशयोक्ति नहीं होगा । जब आप की आवाज लोगों को सम्मोहित करनें लगे तब आप को विशेष रूप से होश मय रहना चाहिए । अवन्तिका चक्र केन्द्रित ब्यक्ति धीरे-धीरे लोगों से घिरनें लगता है , अहंकार सघन होनें लगता है और यह स्थिति उस ब्यक्ति को नीचे की ओर धीरे-धीरे सरकानें लगती है और वह साधक जिसको परम मय होना था , वह छुपा हुआ भोगी का जीवन बितानें लग जाता है । यदि योगियों के इतिहास को आप देखें तो आप को दो प्रकार के योगी मिलेंगे ; एक वे हैं जिनके पास सीमित शब्द हैं और कभी- कभी बोलवाए जाते हैं और दूसरे वे हैं जो दिन-रात बोलते ही रहते हैं । दोनों उत्तम हैं लेकीन बोलनें वाले संसार से बच नहीं पाते । तंत्र में अवंतिका चक्र के माध्यम से साधक एक ओंकार में पहुंचता है जहां उसे ध्वनि रहित ध्वनि की अनुभूति होती है और जो संसार में

तंत्र और योग --12

अनहद चक्र [Heart Centre ] प्रभु की पहचान ह्रदय के माध्यम से होती है ---गीता श्लोक ...13.24 यहाँ आप गीता के निम्न श्लोकों को भी देखें --------- 10.20 , 13.17 , 13.22 , 15.7 , 15.11 , 15.15 , 18.61 , 7.12 - 7.13 , 10.4 - 10.5 दो बातें हैं ----- [क] सभी भाव भावातीत प्रभु से हैं । [ख] आत्मा-परमात्मा का स्थान देह में , ह्रदय है । अनहद चक्र को मथुरा तीर्थ के रूप में भी माना जाता है । मूलाधार - अनहद के मध्य काम-नाभि चक्रों की उपस्थिति साधना की दिशा को रहस्यात्मक बना देती है और ये चक्र मनुष्य के स्वभाव को अध्यात्म से भोग आधारित बना देते हैं । जब काम चक्र एवं नाभि चक्रों की पकड़ ढीली पड़ती है तब ---- राग रहित प्यार ह्रदय में धडकता है ... ह्रदय में आत्मा- परमात्मा बसते हैं ... जो भावों के बीज हैं , लेकीन स्वयं ..... भावातीत हैं । भाव दो प्रकार के होते हैं ; गुण आधारित और निर्गुण । बाहर से देखनें पर दोनों एक से दीखते हैं लेकीन एक होते नहीं । सकारण भाव , भोग- भाव हैं और कारण रहित भाव प्रभु से भरा होता है । एक बात आप को समझनी चाहिए ------ ह्रदय में धड़कता निर्विकार प्यार की लहरें जब गुण प्रभावित मन-

तंत्र और योग ---11

मणिपुर या नाभि चक्र [ Navel Centre ] नाभि के माध्यम से गर्भ का शिशु अपनी माँ से जुड़ा होता है , वह माँ की सभी संबेदनाओं को ग्रहण करता है और माँ से भोजन भी नाभिसे ग्रहण करता है । आप कभी अपने नाभि को उस समय देखा है जब आप पूरी तरह से भय में होते हैं ? यदि नहीं तो जब भी मौका मिले देखना । भय में , मोह में , नाभी सक्रिय हो उठती है और उस ब्यक्ति का शरीर भी कपनें लगता है । श्री कृष्ण से अर्जुन जो बातें बताये हैं [ गीता - 1.26 - 1.30 तक ] , उन बातों से श्री कृष्ण को मालूम हो जाता है की अर्जुन मोह में हैं -- आप भी इन श्लोकों को देखें तो अच्छा होगा । शरीर में कम्पन , गले का सूखना , त्वचा में जलन का होना और मन में भ्रम का बने रहना , मोह की निशानी है । गीता का जन्म अर्जुन के मोह के लिए हुआ है , गीता मोह की वह औषधि देता है जो मोह को जड़ से निकाल देती है । गीता में तामस गुण और तंत्र में नाभि चक्र को समझनें के लिए आप गीता के निम्न सूत्रों को देखें ------- 14.8 - 14.10 , 14.12 , 14.17 , 2.52 , 18.72 - 18.73 , 7.27 , 13.7 - 13.11 गीता के ये सूत्र ------- अज्ञान से ज्ञान , भोग से बैराग्य एवं ग

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स्वाधिस्थान चक्र [Sex Centre] योगी का घर मंदिर होता है और ----- भोगी का मंदिर भी उसके घर जैसा होता है । गीता में काम को समझनें के लिए आप निम्न श्लोकों को देखें -------- 3.36 - 3.43 , 5.23 , 5.26 , 7.11 , 10.28 , 16.21-----तेरह श्लोक गीता कहता है ---- राजस एवं तामस गुणों वाला ब्यक्ति परमात्मा से नहीं जुड़ सकता [गीता ....2.52 , 6.27 ] गीता कहता है --- वह ब्यक्ति जो आत्मा केन्द्रित होता है , काम से अप्रभावित रहता है और कोई काम से नहीं बच सकता । आसक्ति , काम , कामना , क्रोध एवं लोभ राजस गुण के तत्त्व हैं । गीता में श्री कृष्ण कहते हैं --- कामदेव और काम मैं हूँ ...इस का क्या अर्थ हो सकता है ? काम देव काम भाव को शरीर में लाते हैं और काम राजस गुण का प्रमुख तत्त्व है फिर श्री कृष्ण क्या कह रहे हैं ? श्री कृष्ण जिस काम की बात कर रहे हैं वह निर्विकार काम ऊर्जा है जो प्रकृति को धारण किये हुए है , लेकीन जब इस उर्जा में गुण की छाया पड़ती है तब यह काम कृष्ण मय नहीं होता । गीता की इस बात को समझनें केलिए , आप देखें गीता के सूत्र --7.12 - 7.१३-- जो कहते हैं ..... भावातीत - गुनातीत परमात्मा से सभी भाव