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Showing posts from October, 2011

कर्म ,देह एवं आत्मा संबंध

गीता सूत्र – 5.13 सर्व कर्माणि मनसा संन्यस्य आस्ते सुखं वशी नव – द्वारे पुरे देही न एव कुर्वन् न कार्यन् शब्दार्थ मनसा सर्व कर्माणि संन्यस्य नव द्वारे पुरे देही न एव कुर्वन न कार्यन् सुखं वशी वह देहधारी जिसके कर्मों का उसके मन से त्याग हो गया होता है , वह बिना कुछ किये - कराये अपनें नव द्वारों वाले देह रूपी नगर में सुख से रहता है // नौ द्वार कौन – कौन से हैं ? दो आँखें , दो नाक , दो कान , एक मुख , एक मॉल इंद्रिय , एक काम इंद्रिय / मन से कर्मों का त्याग कैसे संभव है ? मन से कर्मों का त्याग होना तब होता है जब कर्म में पूर्ण होश उठ जाता है और होश में हो रहे कर्म के होनें के पीछे कोई अपना निहित स्वार्थ नहीं होता / मनुष्य का वह कर्म जिसके होनें के पीछे , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अह्नाकार की ऊर्जा न हो वह कर्म कर्म संन्यासी बनाता है / He who has conrol over his nature [ action is the function of nature and nature is formed by the combination of three natural modes ] ,

भोग से आगे

गीता सूत्र – 2.71 विहाय कामान् य : सर्वान् पुमान् चरति नि : स्पृह : निः ममः निः अहंकार : स : शांतिम् अधिगच्छति // काम , स्पृहा , ममता एवं अहंकार अप्रभावित , परम शान्ति में रहता है // One who is free from sex , attachement , mineness and ego , remains in complete peace . गीता सूत्र – 2.72 एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ न एनाम् प्राप्य विमुह्यति स्थित्वा अस्याम् अंत : काले अपि ब्रह्म – निर्वाणम् ऋच्छति // ऊपर सूत्र – 2.71 की स्थिति जब मिलती है तब वह योगी गुण – तत्त्वों से अप्रभावित रहता हुआ बरम मय स्थिति में अंत काल में ब्रह्म – निर्वाण को प्राप्त करता है // The state as explained in Gita – 2.71 is a divine frame of mind and intelligence and through this frame one gets Brahm – Nirvana . गीता के दो सूत्र हमें क्या बताना चाह रहे हैं ? हम इस समय जिस आयाम में हैं [ भोग – आयाम ] , गीता अपने दो सूत्रों से हमें वहाँ से उस आयाम को दिखाना चाह रहा है जो परम – आयाम है अर्थत … .. . भोग से सीधे ब्रह्म के आयाम में पहुंचानें का क

अपनें देह को समझो

गीता सूत्र – 18.20 सर्वभूतेषु येन एकम् भावं अब्ययम् ईक्षते अविभक्तं विभक्तेषु तत् ज्ञानं विद्धि सात्त्विकं जिस ऊर्जा से कोई जब सब में समभाव में एक अब्यय को देखता है , तब वह उर्जा सात्त्विक गुण की उर्जा होती है / T he energy through which one realizes the presence of Imperishable uniformally , that energy is the energy of the Goodness – mode . सब में समभाव से एक अब्यय को जो दिखाए वह हैं सात्त्विक गुण , गीता का यह सूत्र आप को ध्यान में स्वतः खीच लाएगा , बश आप इस पर मनन करते रहें / यहाँ गीता के दो और सूत्रों को देखते हैं गीता सूत्र – 14.11 सात्त्विक गुण से देह के सभीं द्वार ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित रहते हैं // गीता सूत्र – 5.13 देह में नौ द्वार हैं , यह सूत्र यह बताता है // नौ द्वारों में आँख [ दो ] , नाक [ दो ] , कान [ दो ] , एक मुह , एक मल – इंद्रिय , एक मूत्र – इंद्रिय हैं सभीं द्वार ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित रहते हैं , इस बात का क्या भाव है ? अर्थात ऐसा मनुष्य जिसके रगों में सात्त्विक गुण की धरा बह रही होती है उसका तन , मन ,

गीता का समत्व योग

गीता सूत्र – 2.48 योगस्थ : कुरु कर्माणि संगम् त्यक्त्वा धनञ्जय / सिद्धि - असिद्ध्यो समः भूत्वा समत्वं योगः उच्यते // आसक्ति जिस कर्म में न हो वह कर्म समत्व – कर्म योग होता है // Action without attachement is Evenness – Yoga . गीता का सूत्र आप देखे गीता के सूत्र को अपनें सुना अब इस सूत्र को अपनें बुद्धि में बसाओ और आगे जो आप करें , करनें के पहले उस कर्म के प्रतिबिम्ब को इस सूत्र के आइनें में देखें / यह सूत्र उनके दिन की धडकन होता है जो ----- गीता - योगी हैं जो स्थिर प्र ज्ञ योगी हैं जो गुणातीत योगी हैं जो कर्म संन्यासी हैं और जो ----- स्वतः ब्रह्म स्तर के हैं // ============== ओम् ==============

क्या है ज्ञान - विज्ञान

गीता अध्याय – 06 गीता सूत्र – 6.7 ज्ञान – विज्ञान तृप्तम् आत्मा कूटस्थ : विजीत – इन्द्रिय : / युक्त : इति उच्यते योगी सम्लोष्ट्र अश्म कांचन : // वह जिसकी इन्द्रियाँ नियोजित हैं , वह सम भाव योगी ---- ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण होता है // Whose senses are controlled ----- he is said to be in Evenness – Yoga and ----- he is filled with wisdom and knowledge [ Gyan – Vigyan ] . क्या है ज्ञान – विज्ञान ? गीता में यदि आप ज्ञान का अर्थ खोजते हैं तो आप को यह मिलता है ------ क्षेत्र – क्षेत्र - ज्ञयो : ज्ञानं एत् तत् ज्ञानं मतं मम --- गीता - 13.3 अर्थात क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है / क्षेत्र है पञ्च महाभूत + [ मन , बुद्धि एवं अहंकार + चेतना + आत्मा + सभीं प्रकार के विकार + सभी प्रकार के द्वैत्य + धृतिका ] / क्ष ेत्रज्ञ के सम्बन्ध में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , यह मैं हूँ जो क्षेत्र को समझता है / ज्ञान – विज्ञान उसे कहते हैं जिससे साकार – निराकार का संदेह रहित बोध होता है / ज्ञान –

मन मित्र एवं शत्रु दोनों है

गीता सूत्र – 6.5 , 6.6 उद्धरेत् आत्मना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत् / आत्मा हि आत्मनः बंधु : आत्मा एव रूपु : आत्मनः // मनुष्य का मन उसका मित्र एवं शत्रु दोनों है Mind is friend and enemy . बंधु : आत्मा आत्मन : तस्य येन आत्मा एव आत्मना जित : / अनात्मन : तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् // जिसनें मन को जीत लिया है उसका मन उसका मित्र होता है पर जो मन जीता हुआ नहीं , वह शत्रु होता है / Conquered mind is a good friend but uncontrolled mind is enemy . गीता कह रहा है ------ नियंत्रित मन मित्र है और अनि यंत्रित मन शत्रु होता है // पहले तो यह समझना जरुरी है कि मित्र एवं शत्रु की परिभाषा क्या है ; कौन मित्र है और कौन शत्रु ? हम उसे अपना मित्र समझते हैं जो हमारे हाँ में हाँ मिलाए और ना में ना मिलाए , हम मित्र उसे कहते हैं जिसको हम रिमोट कण्ट्रोल करते हों और वह मौन रहता हो / जब हमें मित्र और शत्रु की परिभाषा समझ में आ जायेगी तब हमारा कोई न मित्र होगा और न कोई शत्रु क्योंकि मित्र – शत्रु कोई अलग अलग नहीं एक सिक्के के दो पहलू हैं

गीता संकेत भाग आठ

गीता सूत्र – 12.3 , 12.4 ये तु अक् षरं अनिर्देश्यम् अब्यक्तम् पर्युपासते / सर्वत्र – गम् अचिन्त्यम् च कूट – स्थं अचलम् ध्रुवं / संनियम्य इन्द्रिय – ग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः / ते प्राप्नुवन्ति माम् एव सर्व – भूत – हिते रताः // वह जो इंद्रियों को बश में करके अक्षर , अब्यक्त , स्थिर , अपरिवर्तनीय , अचल निराकार की उपासना समभाव में करते हैं वे भी अंततः मुझे हि प्राप्त करते हैं // But those who worship the Imperishable,the Undefinable,the Unmanifested , the Omnipresent , the Unthinkable , the Unchanging and the Immobile, the Constant by restraining all the senses , being evenminded in all conditions , rejoicing in the welfare of all creatures , they , too , finally come to Me. गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , जो करना है करो लेकिन करो जरुर सभीं रास्ते मुझसे प्रारम्भ होते हैं और सनार का भ्रमण यदि होश मय रहा तो अंत में वे मुझ में बिलीन हो जाते हैं / प्रभु आगे कहते हैं , जो कहते हैं , मैं कृष्ण – भक्त हूँ , जो कहते हैं , मैं निराकार