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Showing posts from April, 2011
गीता के एक सौ सोलह मन्त्र अगला मन्त्र … .. गीता सूत्र – 18 . 23 नियतं संग – रहितं अराग - द्वेषत : कृतं अफल - प्रेप्सुना कर्म यत् तत् सात्त्विकं उच्यते // सात्त्विक कर्म वह कर्म है जो ---- आसक्ति रहित हो … .. राग – द्वेष रहित हो … .. कर्म – फल की चाह जिसमें न हो … . और जो … .. नियमित हो // Goodness action is that which is -------- without attachment ….... without passion and aversion without the expectation of its result and …. which is obligatory यह वह कर्म है जिसमें प्रभु दिखता रहता है // आप इस श्लोक को पढ़ो आप इस श्लोक को अपनाओ आप इस श्लोक को अपनें कर्म में समझो तब आप गीता - साधक बन सकते हो // ====== ओम ========
गीता के 116 सूत्रों की माला की अगली मणि … ... गीता सूत्र – 5.10 ब्रह्मणि आधाय कर्माणि संग त्यक्त्वा करोति यः लिप्यते न स पापेन पद्म – पत्रं इव अम्भसा // आसक्ति एवं कर्म – फल चाह रहित ब्यक्ति पाप से अछूता रहता है जैसे पानी में रहते हुए भी कमल – पत्र पानी से अछूता रहते हैं // He who does his work without attachment and expectation of its result remains untouched by sins . आसक्ति रहित और कर्म – फल की बिना कोई उम्मीद किये कर्म करना पढनें और सुननें में यः बात बहुत ही आसान दिखती है लेकिन क्या धारण करनें में भी सरल ही है ? आसक्ति , कामना एवं अहंकार रहित … ...... क्रोध , लोभ एवं मोह रहित … .... कर्म करना क्या है ? इस स्थिति में जो कर्म करता है वह कर्म कर्ता नहीं होता वह कर्म एवं स्व का द्रष्टा होता है // क्या कोई इवरेस्ट छोटी से बोले तो क्या हम जो तराई में बैठे हैं , उसकी आवाज को सुन सकते हैं ? जी नहीं सुन सकते / गीता की बातें इवरेस्ट से आ रही आवाज जैसी हैं और हम ऐसे हैं जैसे तराई में बैठे हों , फिर गीता की बात हमें कैसे सुनाई देगी ? गीता को पढ़

मन परमात्मा है

गीता तत्त्व विज्ञान के एक सौ सोलह सूत्रों की श्रृंखला में अगला सूत्र ------ गीता सूत्र – 10.22 इन्द्रियाणाम् मनश्चास्मि भूतानां अस्मि चेतना इन्द्रियों में मन , मैं हूँ और भूतों में चेतना भी मैं ही हूँ // among senses I am the mind and among livings , I am consciousness . गीता सूत्र 6.15 में प्रभु कहते हैं … .. मन माध्यम से निर्वाण प्राप्त करना ही ध्यान है और गीता सूत्र 8.8 में कहते हैं … .. मन में मुझको जो बसाता है उसे मोक्ष मिलता है // गीता सूत्र 7.4 में प्रभु यह भी कहते हैं … ... अपरा प्रकृति के आठ तत्त्वों में एक तत्त्व मन भी है // मेरा काम हो गया , मैं आप को गीता में बैठाना चाहता हूँ , सो कर दिया , अब आप इसमें कैसे तैरते हैं ? गीता सागर में और क्या - क्या देखते हैं , यह आप पर निर्भर करता है / गीता के माध्यम से प्रभु आप के साथ हैं // ===== ओम =======

सविकार काम पाप की ऊर्जा रखता है

गीता के एक सौ सोलह सूत्रों की श्रृंखला ------- अगला सूत्र इन्द्रियाणि मन : बुद्धि : अस्य अधिष्ठानं उच्यते एतै : बिमोहयति एष : ज्ञानं आबृत्य देहिनम् गीता सूत्र -३.40 सूत्र में प्रभु कह रहे हैं ----------- अर्जुन ! काम के सम्मोहन में इन्द्रियाँ , मन एवं बुद्धि रहते हैं और बुद्धि एन ज्ञान के ऊपर अज्ञान की चादर चढ जाती है , फल स्वरुप मनुष्य यह नहीं साझ पाता की क्या करना है या क्या नहीं करना Through this verse Lord Krishna says ------- Arjuna ! Sex controls the senses , mind and intelligence . Under the influence of sex desire ignorance is in dominating position and covers the intelligence completely . Under such situation to take a right decision is not possible ; whatever action is taken that takes to destruction . अर्जुन का प्रश्न है , मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है ? प्रभु ऊपर दिए गए श्ल्लोक को इस प्रश्न के सन्दर्भ में बोला है , प्रभु कहते हैं ---- अर्जुन ! मनुष्य जब काम के सम्मोहन में होता है तब पाप करता है और काम का सम्मोहन इंदियों पर . मन पर एवं बुद्धि पर भी

तत्त्ववित् कौन है

गीता श्लोक – 5. 8 , 5 . 9 न एव किंचित करोमि इति युक्त : मन्येत तत्त्ववित् पश्यन् शृश्वन् स्प्रिहन् जिध्रन् अशनं गच्छन् स्वयन् श्वसन् || प्रलयन् विसृजन् गृहनन् उन्मिषन् निमिशन् अपि इन्द्रियाणि इन्द्रिय – अर्थेषु वर्तन्त इति धारएत् || गीता कह रहा है ------------ जो स्वनियोजित हैं … ......... जो अपनी इन्द्रियों का एवं उनकी क्रियाओं का द्रष्टा है … ...... जो समभाव में रहता है … .... जिसकी हर श्वास में प्रभु की स्मृति बसी होती है … ...... वह … ... तत्त्ववित् होता है || ===== ओम ==========
गीता संकेत तस्मात् यस्य महाबाहो निगृही तानि सर्वश : इन्द्रियाणि इन्द्रिय – अर्थेभ्य : तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || जिसके बश में उसकी इन्द्रियाँ हैं वह स्थिर प्रज्ञ योगी होता है || A man of controlled senses is said to be settled in wisdom यहाँ गीता तत्त्व विज्ञान में एक सौ सोलह सूत्रों को एक – एक कर के दिया जा रहा है जो सम्पूर्ण गीता के साधना सूत्र हैं | आप यदि गीता को अपना साधना का श्रोत बनानें के इक्षुक हो तो इन सूत्रों में प्रभु श्री कृष्ण को देखनें के इरादे से इन से आप मैत्री स्थापित कर सकते हैं || ========== ओम ============

गीता का सन्देश

यदा संहरते च अयं कूर्म : अंगानि एव सर्वश : इन्द्रियाणि इन्द्रिय – अर्थेभ्य : तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता || कर्म – योग का एक पूर्ण रूपेण स्पष्ट सूत्र यहाँ गीता तत्त्व – विज्ञान में एक सौ सोलह सूत्रों की श्रृंखला के अंतर्गत ऊपर दिया गया , आप इस सूत्र को समझें और इसकी गहराई का मजा लें , सूत्र कह रहा है … ................ प्रज्ञावान वह है ----- जो अपनी इन्द्रियों के ऊपर ऐसा नियंत्रण रखता हो जैसे एक कूर्म [ कछुआ ] अपनें अंगों पर रखता है || यहाँ इस सूत्र में गीता क्या कह रहा है ? एक कछुआ अपनें अंगों को जैसे नियंत्रण में रखता है ठीक उसी तरफ मनुष्य का नियोजन अपनी इन्द्रियों पर होना चाहिए और जिसका नियंत्रण ऐसा है , वह है , स्थिर – प्रज्ञ योगी | अब आप देखिये क्या इस से भी अधिक स्पष्ट कोई बात और हो सकती है ? =========== ओम ==============

मन इन्द्रिय होश

य : तु इन्द्रियाणि मनसा नियम्य आरभते अर्जुन कर्मेन्द्रियै : कर्मयोगं असक्त : स : विशिष्यते || मन से इन्द्रियों को समझना … ... उनसे मित्रता स्थापित करना … .. कर्म – योग है … .... और ---- ऐसा करनें से मन में जो उर्जा आती है वह अनासक्ति - ऊर्जा होती है जो सीधे प्रभु की ओर ले जाती है || Understanding of wisdom – senses …..... establishing friendship with the senses ….... leads to ----- karma – yoga …. and this purifies the energy flowing in senses and mind . Understanding of senses , mind and objects and their relationship is ….. KARM A – YOGA गीता पढनें की किताब नहीं … .. यह वह परम आइना है … . जिसमें अपनें को देखना होता है || ===== ओम ======