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Showing posts from 2015
गीता में दो पल - 19
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1- भागवत : 4.22 > धन एवं बिषयका चिंतन पुरुषार्थका नाशक है और ज्ञान - विज्ञानसे दूर रखता है । 2 - भागवत : 2.1 > एक घडी ज्ञान भरा जीवन भोग भरे 200 सालके जीवनसे अधिक प्रीतिकर होता है । 3- भागवत : 3.36 > साधनसे भक्ति ,भक्तिमें वैराग्य और वैराग्यसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है । 4- भागवत : 2.1 > वैराग्य अर्थात गुण तत्त्वों के सम्मोहन से परे का जीवन । 5- भागवत : 6.5 > बिना भोग अनुभव वैराग्य में पहुँचना कठिन है । 6- भागवत : 11.19 > ज्ञान : प्रकृति , पुरुष , अहंकार , महतत्त्व , 11 इन्द्रियाँ ,5 तन्मात्र , 5 महाभूत आदि को समझना ज्ञान है और इन सबके होनें का कारण ब्रह्म है ,ऐसी समझ विज्ञान है । 7- गीता : 13.2 : क्षेत्र - क्षेत्रज्ञका बोध ज्ञान है । 8- गीता : 4.38 > कर्म -योगसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है । 9- गीता : 4.10 : ज्ञान वह जो प्रभु में बसेरा बनाए । 10 - गीता : 7.19 > कई जन्मोंकी तपस्याका फल है ज्ञान प्राप्ति । 11- गीता : 7.3 > हजारों लोग ध्यान करते हैं ,उनमें एकाध सिद्धि प्राप्ति करते हैं और सिद्धि प्राप्त लोगों में कोई एक तत्त्व ग्यानी होता है । 12- गीत
गीता में दो पल - 18 - दशांगुल न्याय क्या है ?
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# अहँकारके अस्तित्वको दशांगुल न्याय में देखते हैं । * दशांगुल न्याय कहता है कि पृथ्वीके चारों तरफ ब्रह्माण्डके 07 आवरण निम्न प्रकार से हैं । * 1- पृथ्वी चारों तरफ से पानी घिरी है और पानी पृथ्वी से 10 गूना है । *2- पानीके चारों तरफ है अग्नि जी पानी से 10 गूना है । * 3 - अग्नि अपनें से 10 गूँने वायु से घिरा हुआ है। * 4 - वायु अपनेंसे 10 गूँने आकाशसे घिरी है। <> 5- आकाश चारों तरफ से अपनें से 10 गूँनें अहँकार आवरणसे घिरा है । ♂ 6 - अहँकार से 20 गूना है महत्तत्त्व का आवरण । ♀7 - महत्तत्त्वसे 10गूना है अब्यक्तका आवरण । ** अब्यक्तको ही मूल प्रकृति कहते हैं । ## यहाँ से अहँकारके सम्बन्ध में सोचा जा सकता है । ~~~ॐ~~~
गीता में दो पल - 17 अहंकार - 1
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# अहंकार क्या है ? # *भागवत : 3.26 में कपिल मुनि द्वारा दी गयी अंतः करणकी परिभाषाको हम पहले देख चुके हैं । कपिल कहते हैं -- बुद्धि ,अहंकार , मन और चित्तको मिला कर अतः करण बनता है । * अंतः करणके एक तत्त्व बुद्धिको हम गीता के माध्यम से देख चुके हैं और अब देखते हैं दूसरे तत्त्व अहंकारको । <> अहंकारके प्रभावमें मैं और मेराका भाव हर पल मनुष्यमें गूंजता रहता है । <>अहंकारको समझनेंके लिए यहाँ हम दो सन्दर्भोंको देखनें जा रहे हैं -- <> 1 : भागवत में ब्रह्मा ,मैत्रेय ,कपिल और प्रभु कृष्णके तत्त्व -ज्ञान और --- <> 2 : दशांगुल न्यायके माध्यमसे अहंकरके आकरको भी समझते हैं । <> 1: भागवत : 2.4+2.5+3.5+4.6+3.26+11.24 में 230 श्लोकों में ब्रह्मा ,मैत्रेय , कपिल और प्रभु कृष्ण के तत्व -ज्ञान से हमें निम्न सार मिलता है । 1.1: माया पर कालका प्रभाव महत्तत्त्व की उत्पत्ति करता है । 1.2: महत्तत्त्व पर काल का प्रभाव तीन प्रकार के अहंकारों की उत्पत्ति करता है । 1.3: सात्विक अहंकार से मन ,राजसअहंकार से प्राण , बुद्धि और इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। 1.4: तामस अहंकार पर क
गीता में दो पल - 16 (अन्तः करण - 1 )
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* गीता श्लोक : 6.23 में योगकी परिभाषा - दुःख संयोग वियोगः के रूप में और पतंजलि योग सूत्र में चित्त बृत्ति निरोधः केंरूप में हमनें गीता दो पल - 14 और 15 में देखी । * चित्त का हमारे सुख - दुःख की अनुभूतियों से गहरा सम्बन्ध है । आइये ! चलते हैं ,चित्त के रहस्य को बुद्धि स्तर पर समझनें । * कपिल मुनि ,कर्मद ऋषिके पुत्र अपनीं माँ स्वायम्भुव मनु ( पहले मनु : एक कल्प में 14 मनु होते हैं । इस समय इस कल्पके सातवें मनु श्राद्ध देव जी हैं ) की पुत्री देवहूतिको मोक्ष प्राप्ति हेतु सांख्य -दर्शन में कह रहे हैं :--- भागवत : 3.26.14 : बुद्धि ,अहंकार ,मन और चित्त - इन चार तत्वों से अन्तः करण है । # अन्तः करणको समझनें हेतु हमें इन चार तत्वोंको समझाना होगा लेकिन इसके पहले हम अन्तः करणकी बृत्तियाँ को देखते हैं । #* भागवत : 3.26 : कपिल मुनि कहते हैं :--- संकल्प , निश्चय , चिंता और अभिमान ,ये हैं अन्तः करणकी बृत्तियाँ । ** अब देखते हैं अन्तः करणके पहले तत्त्व , बुद्धिको । * बुद्धिके लिए गीता : 2.41+2.66+7.10 + 18.29 - 18.35 श्लोकोंको देखें । * निर्गुण बुद्धि ( गीता : 7.10 ) परमात्मा है [ बुद्ध
गीता में दो पल - 15
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गीतामें दो पल -14 में योगकी दो परिभाषाएं देखनेंको मिली ; एक गीता - 6.23 में कृष्णकी जो कहता है ," दुःख संयोगवियोगः योगः " और दूसरी परिभाषा थी पतंजलि - योग सूत्रकी जहाँ पतंजलि कहते हैं ," चित्त बृत्ति निरोधः योगः "। * आइये ! देखते हैं चित्त और दुःखके सम्बन्ध को :------ # दो शब्द दिखते हैं - मन और चित्त । बहुत भ्रम है इन दो शब्दों में । ज्यादातर लोग इन दो शब्दोंको एक दूसरेके पर्यायवाची रूपमें प्रयोग करते हैं । * भागवतमें अंतः करणके चार तत्त्व दिए गए हैं - मन , बुद्धि ,अहंकार और चित्त । # भागवत : 10.6.42> यहाँ शुकदेव जी कहते हैं , पञ्च महा भूत + पञ्च तन्मात्र + 10इन्द्रियों + पञ्च प्राण +मन और बुद्बिका केंद्र है , चित्त । पांच प्रकार की वायुओं - प्राण वायु + अपान वायु+ ब्यान वायु - उदान वायु और समान वायुको प्राण कहते है । << कुछ और जानकारी अगले अंक में >> ~~~ ॐ ~~~
गीतामें दो पल -14
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गीता श्लोक : 6.23 " दुःख संयोग वियोगम् योग सज्ज्ञितं " * गीता अध्याय - 6 में 47श्लोक हैं और श्लोक 6.35 - 6.36 में अर्जुन मन शांत रखनें के उपायों को समझना चाहते हैं । * गीता अध्याय - 6 उनके लिए उपयोगी है जो अभ्यास - योग से ध्यानकी गहराई में उतारना चाहते है । ** प्रभु योगकी परिभाषा किस तरह दे रहे हैं ? आप इस परिभाषा को आधार बना कर ध्यान में डूब सकते हैं । ध्यानका प्रारम्भ गीतासे करना उत्तम है लेकिन इतनी सी बात समझनी भी जरुरी है , ध्यानका अंत ही अनंत है । ** पतंजलि योगसूत्र कहते हैं :--- "चित्त बृत्ति निरोधः सः योगः " और कृष्ण कह रहे हैं :--- " दुःख संयोग वियोगः सः योगः " ऐसी ग्रंथियोंको धीरे - धीरे खोलना जो दुःख ऊर्जाका श्राव करती रहती हैं , योग कहलाता है । चित्तकी बृत्तियाँ क्या हैं ? इस बातको आगे देखेंगे । ~~~ॐ ~~
गीता में दो पल - 13
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बिषयकी पकड़ बिषयकी आसक्ति ही भोग सम्मोहन की उर्जा है । बिषयका आकर्षण दुखों की जननी है - ययाति: भागवत: 9.19 । इन्द्रिय बिषय ( क्षर भावः ) अधिभूत हैं -भागवत :3.6 + गीता : 8.3 - 4 । बिषय -आसक्ति सत्संग से मिटती है : भागवत : 1.7 । आसक्ति रहित कर्म समत्व - योग है । समत्व योगी ब्रह्म वित् होता है : गीता : 5.19 । ब्रह्म वित् प्रभुका पर्यायवाची शब्द है । ~~~ ॐ ~~~
नारायण क्या है ?
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# वह जो :---- * सबका कारण है पर स्वयं कारण रहित है ** स्वप्न , जागृति , सुसुप्ति और समाधि में द्रष्टा होता है ----- # नारायण है ।। * यह ब ात भागवत में 5 वें योगीश्वर राजा निमि को बता रहे हैं । ** नारायणकी यह परिभाषा बुद्धि - योगका बिषय है ।। ## सोच - सोच से सोच से परेके आयाममें यह सूत्र पहुंचाता है । ~~~ ॐ ~~~
गीता में दो पल - 12
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* असुर और योगी में क्या फर्क है ? * असुर वैर - भाव के आधार पर जिस गति को प्राप्त करता है , उस गति को भक्त प्यार से प्राप्त जार लेता है । * असुर प्रभुको अपनें अधीन रखनें हेतु तप करता है और योगी ,प्रभुका गुलाम बनें रहनें केलिए तप करता है । * असुरकी तपस्या सम्राट बननेंके लिए होती है और भक्तकी तपस्या गुलाम बनें रहनेंके लिए होती है । * अपना -अपना का जाप करते - करते मनुष्य स्वयं पराया बन जाता है - इसे कहते हैं , प्रभु की माया । * प्रभु का भक्त माया का द्रष्टा होता है और असुर माया का गुलाम । ~~~ ॐ ~~~