गीता अध्याय - 13 भाग - 09
ब्रह्म - 02
गीता श्लोक - 13.13 , 13.14
सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखंसर्वतः श्रुतिमत् लोके सर्वं आवृत्य तिष्ठति
सर्व इंद्रिय गुनाभासम् सर्व इंद्रिय विवार्जितम्
असक्तं सारभूत् च एव निर्गुणं गुणभोगत्रृ च
वह ऐसा है -----
जिसके हाँथ - पैर , नेत्र , सिर , मुख , कान सर्वत्र हैं .....
जो संसार में सबको ब्याप्त कर के स्थित है ......
वह ऐसा है ----
जो सभीं इंद्रिय बिषयों को जानता है ....
जो इंद्रिय रहित है ....
जो आसक्ति रहित स्थिति में सबका धारण - पोषक है ...
जो निर्गुण है और गुणों का भोक्ता भी है
गीता का यह श्लोक निर्गुण निराकार ब्रह्म के सम्बन्ध में है / निराकार को सआकार के माध्यम से ही ब्यक्त किया जा सकता है और यह प्रयाश मात्र प्रयाश बन कर राह जाता है , एक इशारा के रूप में इसे समझाना चाहिए ,
लाओत्सू और शांडिल्य ऋषि कहते हैं ----
सभीं इशारे उसकी ओर हैं लेकिन हैं अधूरे और इस बात को आप यहाँ देख सकते हैं /ब्रह्म एक शास्वत ऊर्जा है जिसको इंद्रियों की अनुभूति , बिषयों की अनुभूति एवं वह सभीं गुण उपलब्ध हैं जो एक गुण प्रभावित जीव में हैं लेकिन वह मूलतः है निर्गुणी /
प्रभु श्री कृष्ण गीता श्लोक - 7.12 , 7.13 , 10.4 , 10.5 में कहते हैं .....
तीन गुण हैं , तीनों के अपनें - अपने भाव हैं / गुण और गुणों के भावों से लोग इतनें सम्मोहित हैं कि मेरी ओर पीठ करके रहते हैं और भोग पर उनकी आखे टिकी रहती हैं / वे यह नहीं समझते कि गुणों के सभीं भाव मुझसे हैं लेकिन मैं निर्गुणी हूँ और भावातीत हूँ /
प्रभ गीता में आगे यह भी कहते हैं .....
आसुरी स्वभाव के लोग , गुणों से सम्मोहित लोग सात्त्विक श्रद्धा रहित होते हैं और काम केंद्रित रहते हुए जीवन गुजारते हैं /
मन - बुद्धि जब भाव रहित होते हैं तब निर्गुण की झलक मिलती है
==== ओम् ======
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