गीता अध्याय - 13 भाग - 07

ब्रह्म [ 01 ] 

[ गीता श्लोक 13.12 से 13.17 तक ]

श्लोक - 13.12 

ज्ञेयं यत् तत् प्रवक्ष्यामि यत् ज्ञात्वा अमृतं अश्नुते  /
अनादितम् परमं ब्रह्म न सत् तत् न असत् उच्यते  / 


  • परम ब्रह्म न सत् है न असत् 
  • जाननें योग्य  है , ब्रह्म का बोध अमृत सामान है

ब्रह्म वह है जिसका सम्बन्ध निराकार उपासना से है और निराकार उपासना का प्रारम्भ तब होता
है
 जब ----

  • इन्द्रियाँ नियोजित हों ....
  • मन शांत हो .....
  • बुद्धि स्थिर हो [ अर्थात तर्क - वितर्क की जिस बुद्धि में कोई जगह न हो ] 
  • बिषयों के स्वभाव के प्रति होश बना हुआ हो 
  • तन , मन एवं बुद्धि जब निर्विकार स्थिति में होते हैं
  •  तब -----
  • इस स्थिति में मन - बुद्धि से परे की अनुभूति का नाम है .....
  • ब्रह्म 

सत् और असत् की सोच निर्विकार मन - बुद्धि से नहीं है ; जब मन - बुद्धि निर्विकार हो  उठते हैं तब सभीं द्वैत्य तिरोहित हो जाते हैं और जो बच रहता है वह होता है परम सत्य अर्थात परम ब्रह्म /

आज ब्रह्म - योग के प्रारंभिक चरण में बिषयों को समझो :


  • पांच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं और हर एक इंद्रिय का एक बिषय है जो अपनें सम्बंधित इंद्रिय को आकर्षित करता रहता है  
  •  ऐसा कोई बिषय नहीं  जिसमें राग - द्वेष की ऊर्जा न हो [ श्लोक - 3.34 ]
  •   जब राग और द्वेष से ज्ञानेन्द्रियाँ आकर्षित न हों तब समझना की मन - बुद्धि निर्विकार स्थिति में हैं
  •  और
  •  इस स्थिति का अर्थ है की किसी भी समय ब्रह्म की अनुभूति की लहर उठ सकती है 


अगले अंक में गीता का अगला सूत्र देखा जाएगा ----

=== ओम् =====


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