गीता यात्रा




कर्म तो सभी कर रहे हैं लेकीन -------

कान और कंधे के बीच मोबाइल .....
आँखें भौतिक रूप में सामनें लेकीन ....
मन की आँखें हो सकता है समुद्र पार कहीं ....
धन - टिब्बे के ऊपर टिकी हों तो कोई ताजुब नहीं ....
आगे , थोड़ी ही दूरी पर जनाब पड़े हैं ऐसे जैसे .....
ताजा - ताजा कटा हुआ पेंड पडा हो .....
आस - पास कोई जाना नहीं चाहता ....
कोई मुह में पानी नहीं डालना चाहता .....
क्योंकि ....
कौन इस लपेटे में पड़े ,
पता नहीं पुलिश बात को कहाँ से कहाँ ले जाए ...
क्या यही कर्म है ?

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं :
श्वास लेने से स्वप देखनें तक की सभी क्रियाएं कर्म में आती हैं ॥
यज्ञ करने से चोरी करनें तक की सभी क्रियाएं कर्म हैं ॥
गायत्री जप करनें से भोजन पकानें तक की सभी गति बिधियाँ कर्म में आती हैं ॥
लेकीन -----
सोचें और खूब सोचें की ------
ऐसे कौन से कर्म हैं जिनमें ....
मन - बुद्धि निर्विकार होते हैं ?

गीता में प्रभु कहते हैं :
अर्जुन कर्म तो वही होंगे लेकीन उनके रंग को तुझे बदलना है ....
कर्म में चाह की अनुपस्थिति मात्र ही मन - बुद्धि के रुख को बदल देती हैं ॥
चाह रहित कर्म प्रभु की ओर जानें वाला राज मार्ग है
और ....
चाह सहित कर्म ....
नरक के द्वार पर पहुंचाता है ॥

कितना कठिन है --
कर्म से चाह को हटाना ?

===== ॐ ====

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