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Showing posts from February, 2011

गीता - यात्रा

उसका द्वार कभी बंद नहीं होता ----- He lives in a gateless gate तन की निर्मलता से मन की निर्मलता संभव है ----- मन की निर्मलता प्रभु का द्वार है ...... जिसमें ----- प्रवेश अहंकार को नहीं मिलता ----------- प्रवेश मिलता है , सात्त्विक श्रद्धा को ॥ अब आप देखिये गीता के तीन सूत्रों को ..... सूत्र - 8.12 , 8.13 , 5.13 कों, जो कहते हैं -------- एकांत स्थान में ..... जहां प्रकृति और आप के अलावा और कोई न हो ....... दो घड़ी किसी साफ़ - सुथरी जगह में बैठें ..... आँखों कों बंद रखें , अच्छा होगा यदि तीन - चौथाई आँखें बंद हों ..... मन कों अपनें ह्रदय में स्थापित करें ..... प्राण वायु के माध्यम से ॐ की धुन कों अपनें तीसरी आँख पर स्थापित करनें का प्रयत्न करें ...... ॐ की लय जैसे - जैसे नीचे से ऊपर की ओर उठती है , देह की प्राण ऊर्जा उसके साथ ऊपर उठनें लगती है और ..... इन्द्रियाँ द्रष्टा बननें लगती हैं ...... सारा बदन एक मूर्ति की तरह हो जाता है ..... और जब ----- तीसरी आँख से ऊपर सहस्त्रार की ओर ॐ की धुन चढ़नें लगती है तब ..... जो होता है उसको मैं कैसे बता सकता हूँ , लेकीन ..... इस योग में जो अपनें देह को

गीता - यात्रा

कमीज का गंदा कालर कभीं आप चमकाए हैं ? प्यारसे धीरे - धीरे डिटर्जेंट में कालर को भिगो - भिगो कर मसलना पड़ता है और कड़ी मेहनत के बाद कालर अपनें मूल रूप में आ पाता है । तन मन और बुद्धि को गीता भी कुछ इसी तरह निर्मल करता है , कैसे ? देखते हैं इस उदाहरण से ------- गीता सूत्र - 5.2 कहता है ....... कर्म संन्यास एवं कर्म योग दोनों मुक्ति पथ हैं लेकीन ----- कर्म योग कर्म संन्यास से उत्तम है ॥ ज्यादा तर लोग गीता के एक - एक श्लोकों को पढ़ते हैं और उस पर प्रवचन करते हैं और ऐसा करनें में गीता का अपना परम सौंदर्य समाप्त सा हो जाता है क्योंकि ...... गीता कोई किताब नहीं , यह तो एक आयाम है - परम आयाम जिसका ---- कोई प्रारम्भ नहीं ..... जिसका कोई अंत नहीं .... और जो सनातन है ॥ जो लोग श्लोक - 5.2 का अर्थ लगायेंगे उनका सीधा सा यह अर्थ होगा की ---- कर्म योग और कर्म संन्यास दो अलग - अलग मार्ग हैं जो .... परम में पहुंचाते हैं लेकीन अब ज़रा सा इस को भी देखिये ---- सूत्र - 6.2 कह रहा है -------- कर्म योग और कर्म संन्यास दोनों एक के अलग - अलग नाम हैं जहां साधक संकल्प रहित स्थिति में परम में लींन रहता है ॥

गीता यात्रा

कर्म तो सभी कर रहे हैं लेकीन ------- कान और कंधे के बीच मोबाइल ..... आँखें भौतिक रूप में सामनें लेकीन .... मन की आँखें हो सकता है समुद्र पार कहीं .... धन - टिब्बे के ऊपर टिकी हों तो कोई ताजुब नहीं .... आगे , थोड़ी ही दूरी पर जनाब पड़े हैं ऐसे जैसे ..... ताजा - ताजा कटा हुआ पेंड पडा हो ..... आस - पास कोई जाना नहीं चाहता .... कोई मुह में पानी नहीं डालना चाहता ..... क्योंकि .... कौन इस लपेटे में पड़े , पता नहीं पुलिश बात को कहाँ से कहाँ ले जाए ... क्या यही कर्म है ? गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं : श्वास लेने से स्वप देखनें तक की सभी क्रियाएं कर्म में आती हैं ॥ यज्ञ करने से चोरी करनें तक की सभी क्रियाएं कर्म हैं ॥ गायत्री जप करनें से भोजन पकानें तक की सभी गति बिधियाँ कर्म में आती हैं ॥ लेकीन ----- सोचें और खूब सोचें की ------ ऐसे कौन से कर्म हैं जिनमें .... मन - बुद्धि निर्विकार होते हैं ? गीता में प्रभु कहते हैं : अर्जुन कर्म तो वही होंगे लेकीन उनके रंग को तुझे बदलना है .... कर्म में चाह की अनुपस्थिति मात्र ही मन - बुद्धि के रुख को बदल देती हैं ॥ चाह रहित कर्म प्रभु की ओर जानें वाला रा

गीता यात्रा

प्यार ह्रदय एवं प्रभु गीता कहता है :------ आत्मा रूप में भगवान सब के ह्रदय में हैं और ....... सब को अपनी माया से यंत्र की भाँती भगा रहे हैं ॥ अब ज़रा सोचिये ----- प्रभु ह्रदय में बसता है ..... प्यार की धड़कन भी ह्रदय से उठती है ..... प्यार की धड़कन से ....... प्रभु का संकेत मिलता है ...... लेकीन ----- यही धडकनें जब इन्द्रियों में पहुँचती हैं तब ..... बासना बन कर ........ अमृत को ..... बिष में बदलती हैं ॥ यारों ! प्यार में डूबे हो डूबे ही रहना .... अपनें प्यार को उस हवा से बचाना जो .... अमृत को बिष में रूपांतरित करती है .... क्या यही माया तो नहीं ? माया गुणों का एक झीना पर्दा है .... जो एक तरफ प्रभु को .... और एक तरफ ..... संसार को रखता है ॥ प्यारो ! परदे को प्यार से उठाना .... आगे जो दिखेगा ..... क्या वही परमात्मा तो नहीं ? डूबे हो अपने प्यार में .... तो डूबे ही रहना ॥ ===== ॐ =====

गीता यात्रा

कर्म , भक्ति एवं भगवान् सन्दर्भ गीता सूत्र 18.55 , 18.50 , 18.49 , 4.18 , 18.56 18.54 , 8.6 , 8.7 , 3.34 , 2.62 , 2.63 , 3.19 , 3.20 गीता के तेरह सूत्र आइये देखते हैं इन सूत्रों से हमें कैसे ..... कर्म से भक्ति ..... एवं भक्ति में ..... भगवान् कैसे दिखता है ? ** परा भक्ति प्रभु का द्वार है गीता - 18.55 ** पराभक्ति क्या है ? ** गीता - 18.50 नैष्कर्म्य की सिद्धि ज्ञान योग की परानिष्ठा है नैष्कर्म की सिद्धि क्या है ? ** आसक्ति रहित कर्म ही नैष्कर्म - सिद्धि है गीता - 18.49 जहां कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म दिखता है गीता - 4.18 ऐसा ब्यक्ति कर्मों से लिप्त नहीं होता और अपनें कर्म में प्रभु को देखता है गीता - 18.56 और ऐसा ब्यक्ति सोच - कामना रहित प्रसन्न चित रहता हुआ परा भक्ति में होता है गीता - 18.54 जो तन , मन , बुद्धि एवं कर्मों से प्रभु में रहता है गीता - 8.6 - 8.7 नैष्कर्म के माध्यम से परा भक्ति में कैसे पहंचते हैं ? बिषय , इन्द्रियों एवं मन समीकरण का ज्ञाता नैष्कर्म सिद्धि में पहुंचता है गीता - 3.34 , 2.62 , 2.63 और जो राजा जनक की तरह बिदेह की स्थिति में रहता हुआ कर्मों मेंलिप्त न

गीता यात्रा

अहं आत्मा गुडाकेश ---- सर्व - भूत आशय - स्थित : गीता - 10.20 सभी जीवों के ह्रदय में आत्मा रूप में - मैं हूँ ॥ यह बात प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन से कहरहे हैं ------ आत्मा और परमात्मा पर + आत्मा = परमात्मा अर्थात परम आत्मा , परमात्मा है औरफिर आत्मा क्या है ? किसी तत्त्व को देखिये जैसे उदाहर के लिए हम लेते हैं ताबा को जो एक धातु है जिसका बर्तन आम तौर पर पूजा - बिधियों में प्रयोग होता है । ताबे के बर्तन को बिभाजित करते जाइए अंत में एक अति शुक्ष्म कण में वह बर्तन मिलता है जिसमें ताबे के सभी गुण होते हैं । यदि उस कण को और बिभाजित किया जाए तो आगे भी नाना प्रकार के कण मिलते हैं लेकीन उन पार्टिकल्स में ताबे का गुण नहीं होता । वह सबसे छोटा कण जिसमें उसके मूल के सभी गुण हो उसे मालेक्युल कहते हैं और एक मालेक्युल कई अन्य कणों के मिलनें से बनाता है , और ऐसे कण जिनको एतांम कहते हैं आगे और भी शुक्ष्म कण इसमें होते हैं और इस प्रकार वह ताबे का पात्र अति शुक्ष्म अस्थिर कणों में बिखर जाता है जहां उन कणों को देख कर यह नहीं कहा जा सकता ही ये सभी कण उस ताबे के पात्र के हैं । आत्मा एक माध्यम है और परमात

गीता - यात्रा

[क] विषयों को इन्द्रियों से पहचानो [ख] इन्द्रियों की चाल को मन से समझो [ग] मन को बुद्धि के सहयोग से देखो और ..... बुद्धि को एक पर स्थिर करो वह एक कौन है ? वह जो ..... अब्यक्त है अविज्ञेय है क्षेत्रज्ञ रूप में हम सब में है पुरुष रूप में ब्रह्माण्ड का नाभि केंद्र है और जिस से .... जिसमें ..... वह सब है , जो आज है वह सब होगा जो कल होगा और जिस से एवं जिसमें टाइम - स्पेस फ्रेम है ॥ ==== ॐ ======

गीता - यात्रा

Quantum mind क्या है क्वांटम माइंड ? आज विज्ञान उस मोड़ पर खडा है जहां से एक तरफ प्यार दिखता है और दूसरी तरफ वासना का आयाम स्पष्ट दिखता है ॥ आज विज्ञान जहां है वहा से एक तरफ प्रकाश और दूसरी तरफ अन्धकार स्पष्ट दीखते हैं ॥ विज्ञान की यह स्थिति है क्वांटम मेकेनिक्स ॥ क्वातम स्टेट वह स्थिति है जहां मात्र एक होता है दुसरे के होनें की कोई गुंजाइश नहीं होती । साधना में एक स्थिति वह आती है जहां ..... देह के नौ द्वार होश से बंद कर दिए जाते हैं और देह में जो ऊर्जा बह रही होती है उस पर गुणों की छाया नहीं पड़ती होती और तब ------ उस देह में स्थिति मन - बुद्धि दर्पण पर जो देखता है ..... वह होता है ..... प्रभु का प्रतिबिम्ब ॥ गुणों से अप्रभावित मन - बुद्धि के आयामको quantum state of mind कहते हैं ॥ Q uantum frame of mind is that frame where there is crystal clear image of the almighty which could be seen but which remains unexpressible . गीता इस अनुभूति को ब्रह्म - अनुभूति कहता है और इस को प्राप्त करनें के लिए ध्यान की बिधि भी देता है जिसको हम आगे चल कर देख सकते हैं ॥ ==== ॐ ========

गीता - यात्रा

जीवन के हर अनुभव को ब्यक्त करना संभव नहीं ........ यात्रा वह सुख मय होती है ------ जिसका लक्ष्य तो स्थिर रहे ...... पर मार्ग के चारों ओर का दृश्य हर पल बदलता रहे ..... और ऎसी यात्रा का ही ..... नाम है ...... गीता - यात्रा भोग - संसार में हमारे पास धीरे - धीरे सब कुछ तो होता जाता है ..... लेकीन फिरभी .... हम क्यों अतृप्त बनें रहते हैं , आखिर हमारी खोज किसकी है ? जो हमें पूर्ण रूप से तृप्त करा दे ॥ हमारे रहस्य दर्शी कहते हैं ------ निर्वाण ही वह अनुभव है जो अब्य्क्तातीत है और जिस अनुभव के बाद कुछ और की भूख नहीं रह पाती । निर्वाण वह स्थिति है जहां ...... निर्विकार मन - बुद्धि को प्रभु की छाया के रूप में आत्मा बोध होता है ॥ जब मन - बुद्धि निर्विकार होते हैं .... तब .... जो उनके सामनें होता है .... उसे .... वे शब्दों में नहीं ढाल सकते ॥ ===== यही अनुभूति परम अनुभूति है =======

गीता - यात्रा

गीता कहता है [ गीता - 13.31] वह जो ब्रह्माण्ड को एक के फैलाव रूप में देखता है ....... सत्य देखता है और ऐसा ब्यक्ति ..... ब्रह्म मय होता है ॥ ब्रह्म और प्रभु क्या हैं , इनका आपसी सम्बन्ध ? आदि शंकर ब्रह्म को परम कहते हैं और रामानुज एवं अन्य साकार उपासक ब्रह्म को भी प्रभु के अधीन समझते हैं आखिर यह द्वंद्व है क्या ? निराकार उपासक और साकार उपासक - एक साकार श्री राम या श्री कृष्ण के रूप में परम को देखते हैं और ऐसे, जो बुद्धि आधारित साधक हैं , साकार को नक्कारते हैं , वे निराकार की उपासना करते हैं । निराकार की उपासना अति कठीन उपासना है क्यों की मन - बुद्धि से परे को कैसे जाना जाए ? यह एक अवैज्ञानिक बात दिखती है क्यों की हमारी सीमा मन - बुद्धि तक सीमित है ॥ गीता में दोनों मार्ग हैं एक श्री राम श्री कृष्ण , हिमालय , गंगा , सागर से ले लार कुबेर , मगर आदि के लगभग सौ से भी अधिक उदाहरणों के माध्यम से साकार मार्ग पर चलनें की ओर इशारा मिलता है तो दूसरी ओर गीता यह भी कहता है की - ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है [ गीता - 12.3 - 12.4 ] गीता में ब्रह्म एक माध्यम है जिसमें प्रभु की शत प्रति

गीता यात्रा

गीता कहता है ----- भोग - भगवान् एक साथ एक बुद्धि में एक समय नहीं रहते ॥ फिर क्या करें ? क्या भोग से भागें ? क्या हिमालय पर जा कर कठीन तप करें और ..... भोग की ओर हर पल अपनी पीठ कर के रहें ? पहली बार यदि कोई आकाश से किसी ऐसे तालाब को देखे जिसमें कमल के फूल ही फूल किले हों तो क्या वह कभी यह सोच सकता है की ----- यह कमल कीचड़ से हैं ; इनकी जद कीचड़ से खुराक इनको ऎसी दे रही है की ये इतनें खूबशूरत हैं । कभी बहुत ही हैरानगी होती है , यह सोच कर की ........ मिटटी से चन्दन की जड़ें इतनी मादक खुशबू अपने बच्चे - चन्दन के पेड़ में कैसे डालती होंगी ? मिटटी से कमल की जड़ें कैसे इतनी गहरी खूबशूरती निकालती होंगी ? यदि यह सब संभव है तो ...... यह भी संभव होगा की ------ भोग से ही ब्रह्म की ओर कोई मार्ग जाता होगा ॥ क्या है वह मार्ग ? सीधा और सरल मार्ग है ...... भोग में उठा होश ही वह मार्ग है ॥ ==== ॐ ======