गीता अध्याय - 02
Title :गीता अध्याय - 02
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(क) श्लोकों की स्थिति :---
संजय : 03 ; 1, 9,10 ,
कृष्ण : 63
अर्जुन : 06 ; 4,6,7,8,54,
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योग > 72
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* 2.1> संजय : करुणा में डूबे , ब्याकुल अर्जिन से प्रभु यह बात कही :---
* 2.2,2.3 > प्रभु :यह असमय में मोह कैसा , जो आर्य पुरुषों द्वारा न आचरित है , न स्वर्ग की ओर ले जाने वाला है और न कीर्ति दिला सकता है अतः ह्रदय की दुर्बलता त्याग कर युद्ध के लिए तैयार हो जा ।
* 2.4 > अर्जुन : भीष्म एवं द्रोणाचार्य के खिलाफ कैसे लडूं , दोनों पूजनीय हैं (सूत्र-1.25अर्जुन का रथ इन दोनों के सामने ही खड़ा है ) ।
*2.5 > महानुभाव ! गुरुजनों को न मार कर इस लोक में भिक्षा के माध्यम से जीविकोपार्जन करना उत्तम समझता हूँ । गुरुओ को मार कर उनके खून से सने भोग को ही तो भोगना होगा ।
*2.6 > मुझे कुछ पाया नहीं चल रहा की युद्ध करू या न करू , इन दो में कौन उत्तम है , कौन जीतेगा और कौन हारेगा , कुछ पता नहीं चल पा रहा , धृत राष्ट्र के पुत्रों को मार कर मैं जीना भी नहीं चाहता ।
* 2.7 > अर्जुन : मेरा चित्त घोर सम्मोहन में है , मैं युद्ध कैसे करू, मैं आपका शिष्य - मित्र हूँ , आप मुझे उचित शिक्षा दें ।
*2.8 > राज्य प्राप्ति एवं देवताओ के स्वामित्व को प्राप्त करके भी मेरा इन्द्रियों को सुखाने वाला शोक दूर होता नहीं दिखता ।
* 2.9 > संजय : हे राजन ! निद्रा को जीते हुए अर्जुन , मैं युद्ध नहीं करूँगा , कह कर चुप हो गए हैं ।
* 2.10 > संजय : प्रभु श्री कृष्ण हसते हुए अर्जुन से यह शब्द कहे ....
* 2.11 > कृष्ण: पंडित समभाव होते हैं यह न जानते हुए तूँ पंडित जैसी बातें कर रहा है ।
* 2.12 , 2.13 > कृष्ण : कल हम सब थे , आज हम सब हैं और आनेवाले कल में भी हम सब
रहेंगे ।जीवात्मा जैसे जन्म ,बालकपन , जवानी एवं बृद्धावस्था से गुजरती है वैसे देह परिवर्तन भी उसका एक स्थिति है , इससे धीर पुरुष मोहित नही होते ।
* 2.14-2.15 > कृष्णा : इन्द्रिय सुख - दुःख अनित्य हैं ( देखो - 5.22 , 18.38 को भी )
* 2.16 > तत्त्व दर्शी समझता है :---
नासतो विद्यते भावो , नाभावो विद्यते सतः ।।
* 2.17 से 2.30 तक > ये सूत्र ज्ञानयोग के केंद्र आत्मा से हैं
* 2.18 > अनासीन ( नाशरहित ) , अविनाशी , नित्य , अप्रमेय आत्मा है ।
*2.19 - 2.20 > नायं हन्ति न हन्यते
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।
* 2.21 > नाशरहित , नित्य , अजन्मा , अब्यय रूप में इसे समझनें वाला कैसे किसी को मार सकता है या मरवा सकता है ।
* 2.22 >आत्मा का देह परिवर्तन वस्त्र परिवर्तन सा है ।
* 2.23 > शस्त्रकाट नहीं सकता , आग इसे जल नहीं सकती , जल इसे गला नहीं सकता , वायु इसे सुख नही सकती ।
* 2.24 > अच्छेद्य , अदाह्य , अक्लेद्द्य , अशोष्य , नित्य , सर्वब्यापी , अचल , स्थाणु , सनातन है, आत्मा (स्थाणु का अर्थ है एटम जैसा)
* 2.25 > अब्यक्त , अचिन्त्य , निर्विकार रूप में इसे जानते हुए भी शोक करना उचित नहीं ।
* 2.26 > जो इसे जन्म - मृत्यु वाला समखाते हैं उनको भी शोक नहीं करना चाहिए ।
* 2.27 > जो जन्म लेता है वह मरता भी है , जो मरता है , उसका जन्म भी होता है फिर शोक क्यों
* 2.28 > अब्यक्तादीनि भूतानि ब्यक्त मध्यानि भारत
अब्यक्तनिधनानि एव तत्र का परिदेवना ।।
* 2.29 > आत्मा लोगों को आश्चर्य का बिषय है और अधिकांश इसे नही समझते ।
* 2.30 > यह देह में अबद्य है अत: तुम चिंता न कर ।
* 2.31 > क्षत्रिय के लिए युद्ध सर्वोपरि कल्याणकारी कार्य है , तूँ अपने धर्म को समझ ।
* 2.32 > खुले हुए स्वर्ग के द्वार को भाग्यवान पाते हैं , यह युद्ध स्वर्ग का खुला द्वार है , इसे भाग्यवान ही पाते हैं ।
*2.33 > यदि तुम इस धर्म संग्राम में भाग नहीं लेता तो तुम स्वधर्म एवं कीर्ति को खो देगा ।
* 2.34 > इस प्रकार तुम अनंत काल तक के लिए अपकीर्ति का बिषय बना रहेगा जो मृत्यु से भी अधिक गंभीर है ।
* 2.35 > तेरे प्रशंसक तेरे को युद्ध से हटा हुआ समझ कर तुझे छोटा देखेंगे ।
* 2.36 > तेरे वैरी तेरी भांति भांति से निंदा करेंगे
* 2.37 > दो बाते हैं ; मरने पर स्वर्ग मिलेगा और जीत से पृथ्वी का राज्य अतः तैयार हो जा युद्ध के लिए ।
* 2.38 > जय - पराजय हानि- लाभ
सुख- दुःख को सामान समझते हुए युद्ध के लिए तैयार हो जा ।
* 2.39> अभी तक की बातें बुद्धि योग से सम्बंधित रही अब तू इनको कर्म योग में देख :---
* 2.40 > कर्मयोग धर्म से कोई हानि नहीं अपितु यह महान भय से रक्षा ही करता है ।
*2.41> कर्मयोग में ब्यवसायात्मिका बुद्धि होती है ।
*2.42-2.44 > भोगी , कर्मफल इच्छुक , स्वर्ग प्राप्ति को परम समझनें वाले , वेदों में भोग प्रशंसा के बचनों से आकर्षित लोगों में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ।
* 2.45> वेद तीन गुणो के भोगों एवं उनको पाप्त करनें के उपायों को बताते हैं लेकिन तुम इनसे परे आसक्ति रहित हो , अर्जुन ।
* 2.46 > जैसे बड़े जलाशय के मिलने के बाद छोटे जलाशय से सम्बन्ध रह जाता है उतना सम्बन्ध तत्त्व ज्ञानी ब्राह्मण का वेदों से होता है ।
* 2.47 > कर्म करना सबको है , लेकिन उसके फल में आसक्ति का होना ठीक नहीं ।
( 2.47 से 2.52 तक समत्व योग है )
* 2.48 > परिणाम को बिना सोचे , समभाव में योग में स्थित हो कर कर्म करने को समत्व योग कहते हैं।
* 2.49 > ( इस श्लोक पर अर्जुन का तीसरा प्रश्न आधारित है - 3.1+3.2 )
कर्म बुद्धि योग निम्न श्रेणी का होता है , अतः तुम बुद्धियोग की शरण में रहो क्योंकि कर्म- फल की सोच दीन बनाती है ।
* 2.50 समबुद्धियुक्त पूण्य- पाप इसी लोक में त्याग देता है अतः तुम तुम समत्वयोग में लग जा इससे कार्य कुशलता बढती है ।
* 2.51> बुद्धियुक्त ज्ञानी कर्म- फल त्यागी, कर्म बंधन मुक्त होता है ।
* 2.52 > मोह मुक्त बुद्धि में वैराज्ञ बसता है। यहाँ गीता के इन श्लोकों को भी देखें :---
1.28-1.30,18.72,18.73,14.13,14.17
* 2.53 > ( यह श्लोक अगले प्रश्न का गर्भ है )
भांति - भांति के बचनों के सुनने पर जब तेरी बुद्धि शांत हो जायेगी, तब समाधि के माध्यम से तुम प्रभु से जुड़ जायेगा ।
* 2.54> अर्जुन का पहला प्रश्न :
>> समाधी में स्थित स्थिर- प्रज्ञ की भाषा कैसी होती है , वह कैसे बोलता है , कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?
>>2.55 से 2.72 तक स्थिरप्रज्ञ योगी की बातें हैं।
* 2.55 > कामना रहित आत्मा से आत्मा में संतुष्ट स्थिर प्रज्ञ होता है ।
* 2.56 : विगत स्पृहा , बीत राग भय क्रोध रहित स्थिर प्रज्ञ होता है । see 4.10 राग भय क्रोध रहित ज्ञानी मेरे भाव में रहता है ।
* 2.57 > सर्वत्र स्नेह रहित संभाव स्थिर बुद्धि ब्यक्ति होता है ।
* 2.58 > स्थिर बुद्धि का अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण ऐसे होता है जैसे कछुए का नियंत्रण अपनें अंगों पर होता है ।
* 2.59 > बिषयों से इन्द्रियों को दूर रख कर बिषयों से बचा जा सकता है लेकिन आसक्ति तो बनी रहती है लेकिन परमात्मा केन्द्रित, अनासक्त होता है ।
* 2.60 > मन आसक्त इन्द्रिय का गुलाम होता है
* 2.61> इन्द्रिय नियोजन स्थिर- प्रज्ञ बनाता है
* 2.62 + 2.63 > इन्द्रिय - बिषय मिलन से मनन , मनन से आसक्ति , आसक्ति से कामना और कामना टूटने पर क्रोध उठता है जो विनाश करता है ।
* 2.64 > राग - द्वेष रहित इन्द्रियों वाला बिषयों का द्रष्टा होता है see here *3.34 ( सभी बिषयों में राग - द्वेष की उर्जा है ।
* 2.65 > प्रसन्न चित्त वाला स्थिर बुद्धि योगी है
* 2.66 >अनियोजित मन के साथ अनिश्चायात्मिका बुद्धि होती है ।यहाँ देखें :
* 2.41,7.10 ,18.29- 18.35 ,
* 6.20,6.21,2.42-2.44,12.3-11.4
* 2.67 > बिषय आसक्त इन्द्रिय मन से बुद्धि को नियंत्रित करती है see * 3.6 ,3.7 , 3.24, 2.62,2.63,2.59,2.60
* 2.68 > नियोजित इन्द्रियों वाला स्थिर प्रज्ञ है
* 2.69 >
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी /
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतः मुने: //
* 2.70 > स्थिर प्रज्ञ भोग में भोग का द्रष्टा होता है ।
* 2.71 > कामना , ममता , अहंकार शांति के दुश्मन हैं , see * 2.72 : कामना मोह अहंकार रहित ब्रह्मवित् है ।
=== ॐ ===
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