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Showing posts from July, 2013

ज्ञान - विज्ञान

ज्ञान - विज्ञान श्रीमद्भागवत और गीता के आधार पर ज्ञान और विज्ञान की परिभाषा कुछ इस प्रकार से बनती है : * गीता कहता है : क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है । * भागवत कहता है : शुद्ध इन्द्रिय , मन और बुद्धि के सहयोग से जो अनुभव होता है वह ज्ञान है और वह अनुभूति जिससे सबको एक के फैलाव स्वरुप देखा जाय , विज्ञान है । दोनों बातों को आप अपनें ध्यान का विषय बनाएं और कुछ दिन का मनन आप को जहां पहुंचाए वहाँ कुछ ठहरिये और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अकेले होनें की स्थिति को देखते रहें , आप को जो मिले उसे प्रभु का प्रसाद समझ कर स्वीकारें । यह ज्ञान - विज्ञान का ध्यान आप को इन्द्रियों के माध्यम से मन से गुजार कर बुद्धिसे परिचय कराते हुए जहां पहुंचाएगा वह आयाम होगा  विज्ञान का । ~~~ ॐ ~~~

भागवत स्कन्ध तीन ध्यान - सूत्र

Title :भागवत स्कन्ध तीन ( ध्यानसुत्र ) Content: भागवत स्कन्ध - 03 (ध्यानसुत्र) 1- द्रष्टा - दृश्य का अनुसंधान - उर्जा का नाम माया है 2- संसार में दो प्रकार के लोग सुखी हैं - एक बुद्धिहीन और एक स्थिर बुद्धि ब्यक्ति 3- अनात्म पदार्थ हसीन नहीं हैं जैसा प्रतीत होते हैं 4- बिषयों का रूपांतरण काल का आकार है 5- काल प्रभु की चाल है ( 2.1.33 ) 6- ब्रह्म काल चक्र के घुमने की धुरी है 7- विद्या , दान , तप , सत्य धर्म के चार पद हैं 8- बंधन - मोक्ष का कारण मन है 9- ज्ञान मोक्ष का द्वार है 10- भक्ति , वैराग्य , मन की एकाग्रता से ज्ञान प्रकट होता है और ज्ञान से देह में स्थित क्षेत्रज्ञ का बोध होता है 11- जैसे जल से रस पृथ्वी से गंध को अलग करना संभव नहीं वैसे प्रकृति से पुरुष को अलग करना संभव नहीं 12- असुर प्रभु के तामस भक्त हैं जो प्रभु को अपनें मन में  द्वेष के कारण धारण किये रहते हैं ~~~ ॐ ~~~

गीता अध्याय - 02

Title :गीता अध्याय - 02 Content: >>गीता अध्याय - 02 << (क) श्लोकों की स्थिति :--- संजय : 03 ; 1, 9,10 , कृष्ण : 63 अर्जुन : 06 ; 4,6,7,8,54, –––---------------------- योग > 72 --------------------------- * 2.1> संजय : करुणा में डूबे , ब्याकुल अर्जिन से प्रभु यह बात कही :--- * 2.2,2.3 > प्रभु :यह असमय में मोह कैसा , जो आर्य पुरुषों द्वारा न आचरित है , न स्वर्ग की ओर ले जाने वाला है और न कीर्ति दिला सकता है अतः ह्रदय की दुर्बलता त्याग कर युद्ध के लिए तैयार हो जा । * 2.4 > अर्जुन : भीष्म एवं द्रोणाचार्य के खिलाफ कैसे लडूं , दोनों पूजनीय हैं (सूत्र-1.25अर्जुन का रथ इन दोनों के सामने ही खड़ा है ) । *2.5 > महानुभाव ! गुरुजनों को न मार कर इस लोक में भिक्षा के माध्यम से जीविकोपार्जन करना उत्तम समझता हूँ । गुरुओ को मार कर उनके खून से सने भोग को ही तो भोगना होगा । *2.6 > मुझे कुछ पाया नहीं चल रहा की युद्ध करू या न करू , इन दो में कौन उत्तम है , कौन जीतेगा और कौन हारेगा , कुछ पता नहीं चल पा रहा , धृत राष्ट्र के पुत