गीता अध्याय - 13 भाग - 18

गीता श्लोक - 13.26

यावत् सज्जायते  किज्चित् सत्त्वं स्थावर्जंगमम्  /
क्षेत्रक्षेत्रज्ञ संयोगात् तत् विद्धि भारतर्षभ  //

" यहाँ प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं , हे भारत ! जितनें भी स्थावरजंगम प्राणी उत्पन्न होते हैं
 वे सभीं क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के संयोग के कारण उत्पन्न होते हैं // "

" All movable and unmovable are due to the combination of Kshetra and kshetragya . "

क्षेत्र क्या है ? और क्षेत्रज्ञ क्या है ?

इन दो प्रश्नों के लिए आप को वापिस जाना होगा गीता श्लोक - 13.1 और 13.2 पर /

गीता श्लोक - 13.1 

यहाँ प्रभु कह रहे हैं , " हे अर्जुन ! इदं शरीरं क्षेत्रः " अर्थात यह शरीर क्षेत्र है 
और 

गीता श्लोक - 13.2 

यहाँ प्रभु कह रहे हैं , " भारत ! सर्व क्षेत्रेषु क्षेत्रज्ञ माम् विद्धि " अर्थत सभीं क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ तुम मुझे समझो / 
श्लोक - 13.1 में प्रभु बता रहे हैं कि यह शरीत क्षेत्र कहा जाता है और अगले श्लोक में [ श्लोक - 13.2 ] में कहते हैं , सभीं क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मैं ही हूँ / अब देखना होगा कि शरीर क्या है और शरीर में प्रभु श्री कृष्ण क्या हैं ?

शरीर क्या है ?

देखिये गीता श्लोक - 7.4 - 7.6 
यहाँ प्रभु कहते हैं , " अपरा प्रकृति के आठ तत्त्वों एवं परा से संयोग से सभीं भूत हैं "
और 
गीता श्लोक - 10.20 में प्रभु कहते हैं , सभीं भूतों के दृदय में स्थित आत्मा , मैं ही हूँ /

गीता के गणित के एक अंश को आप यहाँ देखे जहाँ प्रभु कह रहे हैं :------


  • क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के योग का फल सभीं भूत हैं 
  • क्षेत्र भौतिक शारीर है 
  • क्षेत्रज्ञ रूप में सबके ह्रदय में स्थिर आत्मा के रूप में मैं हूँ 
  • और प्रभु यह भी कहते हैं : ------
  • प्रकृति एवं पुरुष के संयोग का परिणाम भूतों के होनें का कारण है 
  • प्रकृति दो प्रकार  की हैं ; अपरा और परा अर्थात पांच महाभूत , मन , बुद्धि , आत्मा + परा रूप में चेतना /
  • प्रकृति से सभीं विकार हैं /
  • गीता के सांख्य योग की गणित जिसका सीधा सम्बन्ध है जीवों के उत्पन्न होने से /

==== ओम् ====

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