गीता अध्याय - 13 भाग - 13

गीता श्लोक - 13.20 

कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु : प्रकृतिः उच्यते / 
पुरुषः सुख्दुखानाम् भोक्तृत्वे हेतु : उच्यते //

" कार्य और करण की उत्पत्ति प्रकृति से है .....
  सुख - दुःख का भोक्ता पुरुष है " 

Effects and causes are generated by the Prakriti [ nature ]  and experience of pleasure and pain is through Purusha [ undefinable ] .


कार्य और कर्ण को समझते हैं :-------

पांच बिषय और पांच महाभूत कार्य कहलाते हैं 
और 
10 इन्द्रियाँ + मन + बुद्धि + अहँकार को करण कहते हैं 
अर्थात 
05 बिषय , 10 इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि एवं अहँकार की उत्पत्ति प्रकृति से है 
और 
सुख - दुःख का अनुभव पुरुष के माध्यम से होता है //

यहाँ गीता के इस श्लोक  के सम्बन्ध में आप गीता से गीता में निम्न श्लोकों को भी देखें --------
9.10 , 13.5 - 13.6 , 14.3 - 14.4 , 7.4 - 7..6 
बिषय , ज्ञान इन्द्रियाँ , मन - बुद्धि , कर्म इन्द्रियाँ और कर्म की सिद्धी गणित गीता में दी गयी है / 

गीता कहता है .....

ज्ञान इंद्रियों का स्वभाव है अपनें - अपनें बिषयों की तलाश करते रहना और जब जिसको अपना बिषय मिल जाता है तब उस समय उस ब्यक्त के अंदर जो गुण प्रभावशाली होता है , उस गुण के अनुकूल उस ब्यक्ति का मन उस बिषय पर मनन करनें लगता है / मनन से आसक्ति , आसक्ति से कामना का जन्म होता है / कामना पूर्ति के लिए वह ब्याक्तो कोशिश करता है और जब कामना टूटनें का संदेह होता है तब उसमें वही कामना की ऊर्जा क्रोध में बदल जाती है / कोध मनुष्य को इन्शान से हैवान बना देता है और वह मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता पशु बन जाता है / 

==== ओम् =====


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