गीता आध्याय - 13 , भाग - 14
गीता श्लोक - 13.21 पुरुषः प्रकृतिस्थ: हि भुङ्क्ते प्रक्रितिजान् गुणां / कारणं गुणसंगः अस्य सद्सद्योनिजन्मसु // प्रकृति में पुरुष स्थित है .... प्रकृति में तीन गुणों के पदार्थ हैं .... प्रकृति में स्थित गुण - पदार्थों का भोक्ता पुरुष है .... यह भोग उसके अगले जन्म को निर्धारित करता है // गीता का सांख्य योग दर्शन कहता है ---- परमात्मा से तीन गुण हैं .... तीन गों का माध्यम माया है .... परमात्मा मायापति है .... परमात्मा में ये गुण नहीं हैं .... तीन गुणों के भाव प्रभु से हैं .... लेकिन प्रभु भावातीत है .... देह में आत्मा [ पुरुष ] प्रभु का अंश है ... देह में इसका केंद्र ह्रदय है लेकिन यह सर्वत्र है .... देह में प्रभु [ जीवात्मा रूप में ] सभीं प्रकार के भाव उत्पन्न करते हैं .... भावों का सम्मोहन भोग में उतारता है .... जैसा भोग भाव होगा , वैसा भोग होगा , जैसा भोग होगा , उस जीवात्मा को उसी तरह की योनि मिलेगी .... मन कामनाओं का केंद्र है --- जीवात्मा जब देह त्यागता है तब इसके संग मन भी होता है ---- मन में उस समय जो अतृप्त सघन भोग भाव रहता है