मित्रता और संदेह
मित्रता और संदेह
मित्रता और संदेह एक साथ एक समय एक मन – बुद्धि में नहीं राह सकते/जहाँ मित्रता है वहाँ संदेह नहीं और जहाँ संध है वहाँ मित्रता की एक किरण भी नहीं हो सकती/
गीता का आधार है अर्जुन का मोह ; अर्जुन जिनके खून के प्यासे थे और पूरी तैयारी के साथ कुरुक्षेत्र में पधारे थे , जब उनको वहाँ देखते हैं तब उनके अंदर बह रही ऊर्जा की दिशा बदल जाती है और कामना मोह में बदल जाती है / अर्जुन के परम मित्र हैं प्रभु सांख्य – योगीराज श्री कृष्ण जो उनके रथ के सारथी भी हैं / प्रभु जब अर्जुन को युद्ध प्रारम्भ होनें के चंद क्षणों के पहले मोह में डूबते हुए देखते हैं तब उनको वे सभीं युक्तियाँ दिखती हैं जिनका सीधा सम्बन्ध है मोह – मुक्ति से /
गीता का अर्जुन गीता के अंत तक प्रभु का मित्र नहीं कहा जा सकता क्योंकि गीता में आखिरी अध्याय [ अध्याय – 18 ] के प्रारम्भ में भी प्रश्न कर रहा होता है /
गीता का अर्जुन प्रभु का मित्र तो नहीं है लेकिन प्रभु उसे मोह से निकाल कर यह उसे जरुर स्पष्ट कर देते हैं की , देख तूं मेरा मित्र था और अब भी है जब तूं मोह – मुक्त है / गीता सूत्र – 18.72 में प्रभु अर्जुन से पूछते हैं , अर्जुन क्या तेरा मोह जनित संदेह समाप्त हुआ और क्या तुम अपनी पूर्व स्मृति में वापिस आ गया है ? अर्जुन यहाँ आ कर कहते हैं [ गीता सूत्र – 18.73 ] , हे प्रभु ! आप की अनुकम्पा से मेरा अज्ञान जनित मोह समाप्त हो गया है अब मैं अपनी खोयी हुयी स्मृति प्राप्त कर ली है और अब मैं आप की आज्ञा के अनुकूल चलनें को तैयार हूँ /
जहाँ मित्रता है वहाँ गुण तत्त्वों के प्रभाव में मन – बुद्धि का होना संभव नहीं
और गुण तत्त्वों के प्रभाव के परे मन – बुद्धि में परम सत्य की लहर बहती रहती है
==== ओम्======
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